महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : परिवर्तन ही संसार का एकमात्र अपरिवर्तनशील नियम है। जो लोग समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार करते हैं, वे निरंतर स्वयं में सुधार और विकास करते रहते हैं। लेकिन जो परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते, जो समय की गति के साथ नहीं चलते – वे उसी कालखंड में खो जाते हैं या पीछे रह जाते हैं।
व्यक्ति के अनुसार दो प्रकार की मानसिकताएँ होती हैं – एक संकुचित विचारधारा (narrow-minded) और दूसरी उदारमतवादी विचारधारा (liberal-minded)। व्यक्ति अपनी विचारसरणी और मत इन्हीं मानसिकताओं के आधार पर निर्मित करता है।
संकुचित विचारों से व्यक्त की गई राय हमेशा उपयोगी सिद्ध हो, यह आवश्यक नहीं है; परंतु उदारमतवादी विचारों से दिए गए उत्तर निश्चित रूप से किसी संकेत का निरसन करने या समस्या का समाधान खोजने में सहायक होते हैं।
इसलिए समय के साथ चलते हुए यह देखना आवश्यक है कि हमारे विचार किस प्रकार के हैं। जिस शरीर में चैतन्य, सजीवता और सजगता है, उसमें स्वाभाविक रूप से परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
ऐसा चैतन्यमय व्यक्ति अपने भीतर, अपने आस-पास और परिस्थितियों में निरंतर बदलाव लाने का प्रयास करता रहता है। भविष्य का हर काल एक नई समस्या लेकर आता है। ऐसे समय में पुराने उपाय कारगर नहीं होते। यदि नई समस्या का समाधान चाहिए, तो उसके लिए नया विकल्प ढूँढना ही पड़ता है।
उदाहरण के लिए, यदि कोई नया रोग उत्पन्न होता है, तो उसके लिए नई वैक्सीन की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह नहीं कि पुराने उपाय गलत थे, बल्कि समय के प्रवाह में नए विकल्पों का निर्माण करना और उनमें परिवर्तन लाना आवश्यक हो जाता है।
इसलिए जैसे-जैसे वातावरण बदलता है, वैसे-वैसे हमें अपनी व्यवस्थाओं में भी बदलाव लाना चाहिए। जो व्यक्ति इस सत्य को समझता है, वही वास्तव में पूजनीय कहलाने योग्य होता है।
