महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : हमारा मन शक्तिशाली है, उतना ही चंचल भी है। साथ ही, हम अपने मन को कल्पवृक्ष के समान कह सकते हैं। जब हमारे मन में कोई इच्छा उत्पन्न होती है, तो मन उस इच्छा को पूर्ण करने की शक्ति रखता है। इतना सामर्थ्य हमारे निराकार मन में है।
इस मन के तीन आयाम हैं। सबसे पहले हम अपने मन में इच्छारूपी बीज बोते हैं। उस इच्छा के बीज का हम सिंचन करते रहते हैं। साथ ही, उसका पालन-पोषण करने के लिए हम उसमें परिश्रम, ध्यान और श्रद्धा का जल डालते हैं। जिस चीज़ का हम लगातार और सही तरीके से अनुसरण करते हैं, उस पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वही इच्छा साकार होती है।
लेकिन इसमें दो प्रकार की ऊर्जा होती हैं एक सकारात्मक और दूसरी नकारात्मक। सकारात्मक ऊर्जा में हम अच्छा करना चाहते हैं, लेकिन उसका अनुशासनपूर्वक पालन नहीं करते, इसलिए मन में रखी इच्छा पूरी हो ही जाए ऐसा नहीं कहा जा सकता। नकारात्मकता में हम अच्छी बातों को भूलकर मन में कटुता, शिकायतें और बुरे शब्द अंकित कर लेते हैं। इ
सलिए ऐसे मन का संतुलन बनाए रखना हमारे ही हाथ में है। हमारे पूरे जीवन का केंद्र यही मन है, और बहुत सी बातें इसी पर निर्भर करती हैं। तो अगर हम इस मन को मातृत्व के स्वरूप में देखें तो क्या होगा?
सीधे शब्दों में कहें तो, रोज़मर्रा के जीवन में जो भी कार्य हम करते हैं, उन्हें केवल “काम” न मानकर “माँ” का स्वरूप समझें। अगर हम अपने मन, वाणी और शरीर को माँ का रूप दें, तो यही हमारे उत्कृष्ट जीवन का मुख्य आयाम बन जाएगा।
माँ ईश्वर के समान है, पर हम माँ का जाप नहीं करते, क्योंकि माँ का जाप करने से ज़्यादा ज़रूरी है माँ के वात्सल्य को अनुभव करना। वह एक भावना है, एक गहरा अनुभव है। ऐसी भावनाओं को अपने हृदय में समेटकर ही हमें जीवन जीना चाहिए।
इसलिए हर कार्य को माँ के रूप में देखना आवश्यक है। चलते समय अगर हम माँ स्वरूप होकर चलें, तो रास्ते में सफलता निश्चित है। बोलते समय अगर हम माँ स्वरूप होकर बोलें, तो हमारे शब्दों से केवल स्नेह और वात्सल्य ही बहेगा। माँ स्वरूप होकर भोजन करें, तो किसी और पोषक तत्व की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
माँ के हर कर्म का अनुकरण अगर हम माँ स्वरूप होकर करें, तो हमारी कोई भी वस्तु खोएगी नहीं, नष्ट नहीं होगी। अगर हम इन सभी बातों को अपने दैनिक जीवन में अपनाएँ, तो चाहे हमें कोई धर्मग्रंथ याद हो या न हो, हमारा जीवन माँ के स्वरूप में जीकर निश्चित रूप से सफल होगा।
हमारे आचरण, वाणी, उठने-बैठने में अगर माँ का स्नेहभाव नहीं होगा, तो हमारा सारा जीवन व्यर्थ हो जाएगा।के सूत्रधार बनें। यदि आपने अपने भीतर ही भगवान को देखा, तो निश्चित ही आप पूजनीय बन जाएँगे।
