महाराष्ट्र जैन वार्ता : अभिजित डुंगरवाल
पुणे : शरीर को सजाने में कई भव पूरे हो जाते हैं, आईए इस भव में आत्मा को सजाने की शुरुआत करें ऐसा प्रतिपादन पं. राजरक्षितविजयजी ने किया।
सातारा गांव में श्री कुंथुनाथ जिनालय में पंन्यास राजरक्षितविजयजी ने कहा कि यदि हम एक हाथ में घी का लोटा और दूसरे हाथ में छाछ का लोटा लेकर घर की ओर जा रहे हों और सामने से बैल दौड़ता हुआ आ रहा हो तो क्या हमें घी या छाछ छोड़ देना चाहिए? खुद को बचाने के लिए? छाछ छोड़ो और सिर्फ घी बचाओ क्योंकि छाछ सस्ती है और घी महँगा है।
शरीर छाछ की स्थान पर है। आत्मा धी के स्थान पर है। अविनाशी आत्मा या विनाशी शरीर, इन दोनों का ध्यान रखना है तो? जब तक शरीर में आत्मा है तब तक रोगी को अस्पताल, डॉक्टर, सलाइन, दवा आदि उपचार दिया जाता है।
जैसे ही आत्मा शरीर से निकलती है, डॉक्टर उसे अस्पताल से निकाल देते हैं। रिश्तेदारों को घर से बाहर निकालें। कार गैराज में जाती है, गहने लॉकर में, धन तिजोरी में, रिश्तेदार दाह संस्कार में, शरीर चिता में, आत्मा परलोक में।
हमारा बहुत सारा जीवन शरीर को सुरक्षित रखने में ही व्यतीत हो जाता है। शरीर की देखभाल में आत्मा की घोर उपेक्षा की गई है। शरीर को जितना हो सके सुरक्षित रखें नाज़ुक शरीर को कितना भी संभाल कर रखो, बुढ़ापे से बीमारी तो खाक हो जाएगी, उसकी देखभाल करें, रोग अंततःभस्म हो जाएगा।
शरीर को सजाने-संवारने में हमारे कई सपने पूरे हुए हैं। इस भाव में हम शरीर के बजाय आत्मा को गुणों से अलंकृत करना शुरू करें। आइए शरीर को वरसीतप में शामिल करके आत्मा पर लगे अनंत कर्मों को नष्ट करें। शरीर को अधिकरण बनाने के बदले उपकरण बनायें और आत्मसाधना करें।
