महाराष्ट्र न्यूज नेटवर्क : अभिजित डुंगरवाल
पुणे : पारिवारिक सुख का आधार धन नही बल्की अच्छा स्वभाव है ऐसा प्रतिपादन पंन्यास राजरक्षितविजयजी ने किया।
श्री संभवनाथ जिनालय ने अपना पहला विहार गुजरी से पूना तक गिरनार लेसर शिरोली एम.आई.डी.सी. में किया। पंन्यास राजरक्षितविजयजी, पंन्यास नयरक्षितविजयजी आदि मुनि कोल्हापुर के कई युवाओं के साथ विहारयात्रा में शामिल हुए। अचलचंदजी परमार परिवार ने गुरु भगवंत का स्वागत किया। परमार परिवार ने साधु-साध्वीजी को ठहराने के लिए श्रमण कुटीरका प्रारंभ किया।
पं. राजरक्षितविजयजी ने कहा कि दुख की जड़ पाप है। सुख का मूल धर्म (पुण्य) है। सुख की प्राप्ति के लिए धर्म का आचरण करना पड़ता है। दुःख से बचने के लिए पाप कर्मों का त्याग करना होगा। आज के लोग पुण्य के फल के रूप में सुख चाहते हैं। लेकिन पुण्य कार्य नहीं कर रहे हैं, पाप का फल दुःख भोगना नहीं बल्कि अंधाधुंध पाप करना है।
पाप एसी प्रोडक्ट हैं खरीदने जाते हैं तो सस्ता लगता है लेकिन पेमेंट करते समय कमर टूट जाता है। दान, शील, तप आदि धर्म हैं। लेकिन स्वधर्म ही बुनियाद है, कोई भी इमारत तभी सुरक्षित रह सकती है जब नींव मजबूत हो। स्वधर्म (कर्तव्य) युक्त धर्म ही लाभदायक होता है।
माता-पिता की सेवा, बड़ों का आदर, बच्चों के प्रति प्रेम, पत्नी के प्रति स्नेह आदि मूल स्वधर्म हैं। परिवार में छोटे बड़ों का सम्मान करते हैं और बड़ा छोटे की चिन्ता करता है। उस घर में स्वर्ग उतर आता है। वरिष्ठ नागरिकों को यथासंभव मौन रहना चाहिए। समय-समय पर टक टक करने के बजाय, आपको कभी-कभी टकोर करना चाहिए।
पारिवारिक सुख का आधार धन नहीं बल्कि अच्छा स्वभाव है। अच्छे स्वभाव की हानि की भरपाई अरबों नोटों से नहीं की जा सकती। कड़वे वचन जिंदगी को कड़वा बना देते हैं। यदि बोलना ही है तो हितकारी, मितकारी, प्रियकारी, प्रेमपूर्ण शब्द बोलें। कठोर वचन आग लगाने का काम करता है। मुलायम वचन शाता देने का काम करते हैं।
