महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जब श्रद्धा होती है, तभी ज्ञान प्राप्त होता है और जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही चरित्र बनता जाता है। श्रद्धा या श्रद्धा-प्रधान जीवन ही हमारे जीवन का प्राण होता है। यही बात तपस्या पर भी लागू होती है। यदि पुण्य कमाना है तो तपस्या आवश्यक है। तपस्या के बिना समृद्धि संभव नहीं है, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
वेपरिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में संबोधित कर रहे थे। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि जिस तपस्या में भक्ति और श्रद्धा के भाव होते हैं, उसमें पुण्य का समावेश होता है। लेकिन जिस तप में आसक्ति, राग, द्वेष, प्रतिशोध और प्रतिष्ठा की असुरी भावना होती है, वहां पाप का निवास होता है। इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम किस प्रकार की श्रद्धा, भक्ति और तपस्या करते हैं। इसका केवल एक ही पहलू नहीं, बल्कि अनेक आयाम होते हैं।
भक्ति से की गई तपस्या आपको राम बना सकती है, जबकि अहंकार से की गई तपस्या आपको रावण बना सकती है। एक तपस्या भक्ति से होती है और दूसरी अहंकार से। हमें ऐसी तपस्या करनी चाहिए जिससे जगत का कल्याण हो। इसका अर्थ यह है कि भक्ति से उत्पन्न तपस्या दैवी शक्तियों का संचार करती है।
प्रवीणऋषिजी ने कहा, यदि आप उस ऊंचाई तक पहुँचना चाहते हैं, जिसके बारे में आपने कभी कल्पना भी नहीं की, तो भक्ति में लीन होकर तपस्या अवश्य करें। भक्ति-प्रधान तपस्या में ईश्वर की शक्ति समाहित होती है, जबकि अहंकार से की गई तपस्या में केवल घमंड की शक्ति होती है। अहंकार चाहे जितना भी बड़ा हो, ईश्वर की शक्ति के सामने वह तुच्छ ही होता है।
भक्ति का सही अर्थ है, मैं ईश्वर की संगति में, उनके समर्पण में तपस्या कर रहा हूँ। इसके उदाहरण के रूप में उन्होंने आगम साहित्य का उल्लेख करते हुए इंद्रभूति गौतम और गोशालक की परस्पर विरोधी तपस्याओं का वर्णन किया। इंद्रभूति गौतम की भक्ति से की गई तपस्या के कारण उनका तेज और ज्ञान अद्भुत बन गया था। परिणामस्वरूप, जिन्हें भी उन्होंने दीक्षा दी, वे सभी ज्ञानी बनते चले गए क्योंकि दीक्षा देते समय उनके मन में सच्ची सद्भावना थी।
कभी-कभी लोग यह कहते हैं कि तपस्या के बाद क्रोध और चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। इसका उत्तर देते हुए प्रवीणऋषिजी ने कहा कि ऐसी तपस्या अहंकार से प्रारंभ हुई है, उसमें भक्ति का समावेश नहीं है। श्रद्धा और भक्ति से जन्मी तपस्या की गंगा समूचे विश्व को शीतलता प्रदान करती है।
उन्होंने आगे उदाहरण देते हुए कहा कि ज्ञानी व्यक्ति या ध्यान-साधना करने वाले को क्रोध आ सकता है, लेकिन जब हम सभी धर्मों के ग्रंथों का अध्ययन करते हैं तो हमें कहीं भी यह नहीं दिखाई देता कि किसी सच्चे भक्त को क्रोध आया हो। जहां श्रद्धा नहीं होती, वहां क्रोध उत्पन्न होता है; जहां प्रेम नहीं होता, वहां घृणा पनपती है; और जहां वात्सल्य नहीं होता, वहां आक्रोश जन्म लेता है।
इसलिए तपस्या का सही अर्थ है, अपने आराध्य की उपासना करना। आपकी तपस्या कैसी होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी भक्ति कितनी निर्मल, कितनी शुद्ध और कितनी श्रद्धा से परिपूर्ण है।
