महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : मानव जीवन में दृष्टि और दृष्टिकोण का बहुत महत्व होता है। इस सृष्टि के माध्यम से हम कई चीजों को परखते हैं और अपने भीतर समाहित करते हैं। इसलिए जीवन में यह समझना बहुत ज़रूरी है कि हमें अपने भीतर क्या और किस प्रकार की चीज़ें समाहित करनी हैं। ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म.सा. ने किया। वे परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में बोल रहे थे।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, जब हम अपने जीवन के मार्ग पर चलते हैं, उस समय ज्ञान, दर्शन और आचरण इन तीन बातों को आधार बनाते हैं। ये तीनों आधार जितने महत्वपूर्ण हैं, उतना ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इस मार्ग पर चलते समय हमारी दृष्टि कहाँ और कैसे पहुँचती है।
जब हम आगे कदम बढ़ाते हैं, तब जिस स्थान पर पाँव रखने जा रहे हैं, वहाँ पहले हमारी दृष्टि पहुँची होनी चाहिए। जहाँ दृष्टि नहीं जाती, वहाँ कदम नहीं रखना चाहिए। हमारी दृष्टि के कारण भूमि पावन होती है।
इसके पीछे एक वैज्ञानिक कारण है। हमारी आँखों से निकलने वाली किरणें ऊर्जा रूप होती हैं, और जहाँ भी हम देखते हैं, वहाँ वह ऊर्जा पहले पहुँचती है। उसी समय प्रक्षेपण और ग्रहण की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रहती है। यदि यह प्रक्रिया सकारात्मक रूप से होती है तो उसे कृपादृष्टि कहते हैं, लेकिन अगर वही दृष्टि शुष्क हो, तो जीवन में तूफ़ान आना निश्चित है।
इसलिए दृष्टि में सामर्थ्य समाया हुआ है। जिनकी दृष्टि हमारी राह पर स्थिर होती है और हम उसी पथ पर कदम रखते हैं, वे कदम निश्चित रूप से सफल होते हैं। परंतु यदि हमें खुद यह निश्चित नहीं है कि कदम कहाँ रखना है, तो मन में उथल-पुथल होना स्वाभाविक है।
कई बार हम केवल सुनते हैं, पर सामने वाले की ओर नहीं देखते। उस समय उसके शब्द केवल कानों से टकराकर निकल जाते हैं। लेकिन यदि हम उसकी ओर ध्यानपूर्वक देखते हैं, उसकी आँखों में आँखें डालकर सुनते हैं, तो वह जो शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाया, वह भी हमें समझ में आता है।
जहाँ तन है, वहीं मन भी होना चाहिए। तभी ध्यान भटकेगा नहीं। यदि कृति एक, शब्द दूसरे और विचार तीसरे होंगे, तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, वास्तव में हम मनुष्य के रूप में बहुत भाग्यशाली हैं।
हमारे शरीर को इंजन के रूप में मन, विचार और वाणी ये तीन शक्तिशाली यंत्र प्राप्त हुए हैं। यदि ये तीनों एक सीधी रेखा में चलें, तो कोई भी पहाड़ रास्ते में आए, वह हमारे संकल्प को रोक नहीं सकता।
जिस लक्ष्य तक पहुँचना है, उस पर ध्यान केंद्रित रहेगा। उदाहरण के तौर पर, छात्रों को परीक्षा के समय पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, न कि आने वाले अंकों पर। यदि ध्यान अंकों पर केंद्रित किया गया, तो इसका मतलब है कि मन, दृष्टि और विचार विचलित हो गए।
इसलिए जो भी हम अभी कर रहे हैं, उसमें पूर्ण रूप से उपस्थित रहना जरूरी है। यहीं से एकाग्रता उत्पन्न होती है। क्योंकि मन स्वभाव से रिक्त होता है। मन का ध्यान भटकाने के लिए बाहरी दुनिया में कई चीजें घात लगाए खड़ी होती हैं। मन की अपनी कोई भाषा नहीं होती, इसलिए वह बाहर से जो ग्रहण करता है, वही अंदर समाहित कर लेता है।
इसलिए हम उसमें क्या भर रहे हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है। जो भी कार्य करें, उसमें पूर्ण ध्यान लगाएँ, एकाग्रता को विकसित करें, अपने भीतर स्थिरता लाएँ, यदि ये तीन बातें क्रम में आती हैं, तो हमारे द्वारा गलती नहीं होगी। इससे पाप की गति मंद होगी और पुण्य में वृद्धि होगी। और अंततः हमारा चरित्र यानी नाम और कर्म प्रभावशाली और उज्ज्वल बनेगा।
