महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जो दूसरों का दुःख समझ नहीं सकता, दुःख सुन नहीं सकता या सुनने का प्रयास भी नहीं करता, वह ईश्वर का वरदान भी समझ नहीं पाएगा। दूसरों का दुःख जानने और समझने का प्रयास कीजिए। उनके दुःख का कारण क्या है, यह जानने की कोशिश कीजिए। उनके दुःख का निवारण करने का प्रयास कीजिए। दुःख को समझना, दुःख में सहभागी होना और उसका निराकरण करना यह वास्तव में सच्चे अर्थों में साधना है। सामने वाले के दुःख की अनुभूति हमें होते हुए भी यदि हम उसकी अनदेखी करते हैं, तो उस क्षण हम अपनी ही अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर रहे होते हैं। ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा जिस वस्तु का आरंभ होता है, उसका अंत भी अवश्य होता है। इसलिए कौन-सी वस्तु का आरंभ करना है और कौन-सी वस्तु का अंत करना है, यह समझना बहुत आवश्यक है।
सुख एक क्षणिक वस्तु है। इसलिए सुख का आरंभ करने के बजाय हमें दुःख का अंत करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। जीवन के दुःख का अंत हो जाए तो उससे प्राप्त परिणाम अधिक प्रभावी होंगे। इसीलिए हमें इस दिशा में विचारपूर्वक दृष्टि डालनी चाहिए।
पुण्य की शुरुआत करने से पहले पाप का अंत करना चाहिए। धर्म का आरंभ करने से पहले कर्म का अंत होना चाहिए। अर्थात जिसका आदि होता है उसका अंत भी होता है, और जो अनादि है वह अनंत चलता रहता है।
दुःख का अंत होते ही पाप का भी अंत होता है। पाप का अंत होते ही कर्म का अंत हो जाता है, और कर्म का अंत होते ही परिणामस्वरूप जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।
हमारा यह शरीर अनगिनत जीवों से मिलकर बना है।
हर एक जीव में समान आत्मा समाई हुई है। इसलिए समदृष्टि से हमें दूसरों के कष्ट और दुःख को समझने का प्रयास करना चाहिए। स्वयं को उस स्थान पर रखकर देखना चाहिए, तब ही उनके दुःख की अनुभूति निश्चित ही हमारे पास पहुँचेगी। परंतु इसके लिए स्वयं का संवेदनशील होना आवश्यक है।
मान लीजिए सामने वाले ने हमारी आवाज़ नहीं सुनी, तो हमें लगता है कि उसने हमारा अपमान किया है या हमें बुरा लगता है। फिर हम ही अपनी आवाज़ की अनदेखी करें तो यह कैसे उचित होगा? यह तो सीधे-सीधे अपने ही अपमान के समान है।
इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी आवाज़ के साथ दूसरों की आवाज़ को भी पहचानें। दूसरों का दुःख भी जानें और उसमें स्वयं को सहभागी बनाएँ। इसीलिए पर्युषण पर्व और अंतगड सूत्र में कही गई बातों को जीवन में उतारना चाहिए।
इनसे जीवन को सही मोड़ मिलेगा, उचित दिशा प्राप्त होगी। इस तरह की जीवनशैली अपनाने से व्यक्तित्व में नए आयाम जुड़ेंगे। इसके लिए केवल अपने भ्रम में न रहें, बल्कि उस भ्रम को तोड़कर अपनी अंतरात्मा द्वारा दिखाए गए मार्ग को स्वीकार करें।
दूसरों के दुःख को अपना बनाने का प्रयास करें, आत्मा से एकरूप होने का प्रयास करें। अपने दुःख का अंत करते समय दूसरों के दुःख का अंत करना यह विचार और यह क्रिया स्वयं में और दूसरों में परिवर्तन लाने वाली एक महान प्रक्रिया सिद्ध होगी।
