महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : ततपस्या से ही जीवन को आकार मिलता है। जैन धर्म की पहचान दान और तपस्या के कारण ही है। दान देने वाले तो कई मिल जाएंगे, लेकिन तपस्या के विषय में जैन धर्म के समकक्ष कोई अन्य धर्म नहीं है। जैन धर्म के तीर्थंकरों ने तपस्या द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया है। यह ज्ञान न तो सहजता से मिला है और न ही यह कोई विरासत में प्राप्त वस्तु है। धन-संपत्ति विरासत से मिल सकती है, कोई व्यक्ति परंपरा से राजा बन सकता है, परंतु सच्चा ज्ञान केवल तपस्या और साधना से ही प्राप्त होता है, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने श्रद्धालुओं का मार्गदर्शन किया। उन्होंने कहा कि शरीर को शुद्ध करने का सर्वोत्तम मार्ग है तप। शरीर और मन की मलिनता को दूर करने के लिए तप-साधना अत्यंत आवश्यक है।
सबसे महान साधना, तप-साधना होती है। जब तप और ध्यान एक साथ चलते हैं, तो यह वैसा ही होता है जैसे श्रीराम के साथ हनुमान हों। तप कोई रूढ़िगत परंपरा नहीं, बल्कि एक परम विज्ञान है। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि चाहे जितना जप करें, नामस्मरण करें, लेकिन यदि उसमें तपस्या की ऊर्जा नहीं जोड़ी गई, तो वह सब व्यर्थ है।
जैसे एक कुंभार उत्तम मिट्टी लेकर घड़े को आकार देता है, फिर उसे भट्ठी में पकाता है, तभी वह घड़ा उपयोगी बनता है। उसी प्रकार, जब तक तपस्या की अग्नि में मनुष्य की साधना नहीं पकती, तब तक वह अधूरी ही रहती है।
एक बार यह घड़ा जो ज्ञान, श्रद्धा और गुरु-कृपा से बना हो — तपस्या से पक जाए, तो उसमें जो भी पानी रखा जाए, वह सुरक्षित और शुद्ध रहता है। लेकिन कच्चे घड़े में पानी रखा जाए, तो वह सिर्फ कीचड़ बन जाता है। परंतु पक्के घड़े में रखा पानी निर्मल और शीतल हो जाता है।
