महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : अक्सर हम स्वयं में परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं। अपनी सोच, विचारों और देहभाषा में बदलाव करने का प्रयास करते हैं। इसी प्रकार, कभी-कभी दूसरों की सोच या मत बदलने का भी प्रयत्न करते हैं। परंतु क्या यह इतना सहज संभव है? क्या वास्तव में हम अपने भीतर या दूसरों में स्थायी परिवर्तन ला सकते हैं? और यदि परिवर्तन हो भी जाए, तो उसमें कितने समय तक निरंतरता बनी रहेगी?
वास्तव में, स्वयं के विचारों या दूसरों की सोच में परिवर्तन लाना इतना आसान नहीं है। ऐसे समय में आवश्यक है कि हम स्वयं के या सामने वाले व्यक्ति के मन की गहराई तक पहुँचें। परंतु मन तो निराकार है, उसका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। वह चंचल है—कभी यहाँ तो कभी वहाँ। इसीलिए मन में निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
जब हम मन की गहराई तक पहुँचते हैं, तभी आत्मा तक पहुँचने का अर्थ होता है। आत्मा ही हमारे शरीर का मूल है। वह शुद्ध, स्थिर और चिरंतन है। जब हम आत्मा के गुणों को पहचानकर उसकी जड़ तक पहुँचने का प्रयास करते हैं, तभी हम अपने विचारों, देहभाषा या दूसरों के विचारों में वास्तविक परिवर्तन ला सकते हैं।
आत्मा ही हमारे मन और शरीर का कर्ता-धर्ता है। हमारे भीतर स्थित इस आत्मरूपी स्वामी को जागृत करना अत्यंत आवश्यक है। जब तक वह जागृत नहीं होता, तब तक हमारे शरीर, विचार और मन का संचालन कैसे होगा? इसका सीधा अर्थ यह है कि हमारे भीतर परिवर्तन की प्रक्रिया तभी घटित होगी जब आत्मा जागृत होगा।
कितने भी धर्मग्रंथ या वैचारिक ग्रंथ पढ़ लिए जाएँ, यदि आत्मा को नहीं समझा तो उनका असर हमारे आचरण पर विशेष रूप से नहीं पड़ेगा। क्योंकि आत्मा ही मूल है। वह हमारे शरीर का स्थायिभाव है। और यदि हम उसी को नहीं पहचानते, तो मात्र पढ़ने या करने से हमारे भीतर कोई वास्तविक परिवर्तन संभव नहीं है।
यदि आत्मज्ञान और आत्मबोध की प्रक्रिया को जागृत करना है, तो मन में आत्मा के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होना आवश्यक है। जब तक यह जिज्ञासा नहीं जागती, तब तक हमारी ज्ञानलालसा भी प्रबल नहीं होगी। और जब यह जिज्ञासा उत्पन्न होगी, तभी हम आत्मा की गहराई तक पहुँचकर उसे जानने और आत्मबोध प्राप्त करने का वास्तविक प्रयास कर पाएँगे।
