महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : मृत्यु ही अंतिम सत्य है। जब वह हमें छीन लेता है, तब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं बचता। कोई टूटी हुई वस्तु या बिखरे हुए संबंध समय के साथ फिर से जुड़ सकते हैं; परंतु जब मृत्यु हमें आ घेरती है, तब उसका कोई उपचार संभव नहीं होता। मृत्यु अटल है, यह सत्य हम सहज स्वीकार नहीं कर पाते।
आज विज्ञान ने मृत्यु पर विजय पाने के अनेक उपाय खोजने का प्रयत्न किया है। कोशिकाओं को संरक्षित रखने के प्रयोग शुरू हुए हैं, ताकि जब मृत्यु आए तब भी वे कोशिकाएँ किसी काम आ सकें। किंतु मृत्यु तो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, यह विज्ञान स्वयं मानता है। ऐसे में मृत्यु पर पूर्णतः विजय प्राप्त करना असंभव है।
फिर भी, हम इस भौतिक संसार और जीवन में इतने उलझ गए हैं कि मोह–मायाजाल में खुद को फँसाए रखते हैं। सत्य का बोध न होने के कारण मनुष्य की आचरण में प्रमाद और भटकाव बढ़ता जा रहा है। यह मायावी संसार हमें हमेशा आकर्षित करता है।
यहाँ क्रोध, अहंकार, मोह, लोभ जैसी असंख्य प्रवृत्तियाँ हमें बांध लेती हैं। इनसे बचाव करना अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा, इन बंधनों में फँसकर हम अपने मन में भ्रम के महल खड़े करते रहते हैं। हम साधारण जीवनशैली छोड़कर अपने व्यक्तित्व पर दिखावे का मुखौटा ओढ़ने लगते हैं।
भीतर कुछ और, बाहर कुछ और – यही हमारी स्थिति हो जाती है। और जब इस मुखौटे की आदत पड़ जाती है, तब मनुष्य उसी का दास बन जाता है। धीरे-धीरे भ्रम का जाल अपने चारों ओर फैलाता चला जाता है।
मनुष्य-जीवन है तो इच्छाएँ और आकांक्षाएँ स्वाभाविक हैं, परंतु उन पर नियंत्रण पाने के लिए अंतर्मन को जागृत करना अनिवार्य है। मोह की हवाओं में बहकर हमसे कभी-कभी अपराध भी हो जाता है। वह अपराध देखने में छोटा प्रतीत होता है, परंतु आगे चलकर बड़े अपराध का रूप ले सकता है।
जैसे भोगों में लिप्त व्यक्ति रोग की संभावना नहीं देख पाता और उसी में डूबा रह जाता है। अतः हमें अपने शरीर को मोह, लोभ और भोग में उलझाने के बजाय साधना में लगाना चाहिए। यही मोक्षमार्ग की पहली सीढ़ी है।
शरीर मिला है तो उसका उपयोग करना आवश्यक है, किंतु उसे साधना और अनुशासन से प्रशिक्षित करना भी उतना ही जरूरी है। अज्ञान से ढके समाज में ज्ञानी बने रहना कठिन कार्य है। किंतु जो सत्य का अनुभव करता है, जो इस मायावी संसार के खतरों को पहचान लेता है, वही साधना की राह पकड़कर अपने जीवन को पापों से मुक्त कर सकता है।
