महाराष्ट्र न्यूज नेटवर्क : अभिजित डुंगरवाल
पुणे : दुःख मे अपने से अधिक दुःखी को देखोगे तो हमारा दुःख हल्का हो जाएगा ऐसे विचार पं. राजरक्षितविजयजी ने रखे।
श्री संभवनाथ जिनालय गुलटेकडी जैनसंध मे पंन्यास राजरक्षितविजयजी ने कहा कि वर्तमान समय में मानसिक (असंतुष्ट) दुःख शारीरिक (असंतुष्ट) दुःख से अधिक है। मन की प्रसन्नता बनाए रखने के लिए सकारात्मक सोच को प्राथमिकता देनी चाहिए। परिस्थितियाँ कर्म पर निर्भर करती हैं। लेकिन मन की स्थिति स्वतंत्र है। वैसे भी घटना की व्याख्या करना हम पर निर्भर है।
गुलाब की किस्मत काँटा भी है और खुशबू भी। हालाँकि, गुलाब काँटे की शिकायत नहीं करता बल्कि फूल बांटकर ख़ुशी से रहता है। यदि आप जीवन में किसी भी कमजोर स्थिति को स्वीकार कर लेंगे तो आपको खुशी मिलेगी। यदि तुम इंकार करोगे तो तुम्हें दुःख होगा। श्रेणिक राजा उसके पुत्र से बिल्कुल भी नफरत नहीं करता था जो रोज 100 (हंटर )चाबुक मारकर पीडा देता था। गजसुकुमाल के ससुर सौमिल, जिन्होंने गजसुकुमाल के सिर पर अंगारे का ढेर लगाया था, उनके प्रति दुर्भावना नहीं थी। परंतु उन्होंने अपकारी को भी कल्याणकारी मानकर आत्म-कल्याण किया ।दुःख आने पर अगर हम अपने से ज्यादा दुःखी को देखेंगे तो हमारा दुख हल्का लगेगा। सभी धर्मों का मूल समता है। समभाव विकसित करने के लिए, छोटी घटनाओं में जाने दो, बड़ी घटनाओं में भगवान के भरोसे छोड दो। मुनि कृपाशेखर विजयजी ने कहा कि मानवभव की सार्थकता संग्रह करने में नहीं बल्कि भलाई करने में है। लालच का कोई अंत नहीं है. जो सुख संतोष में है वह संग्रह करने में नहीं। कीचड़ में पैर गँवाकर धोने से अधिक आवश्यक है कि कीचड़ में न गिरें। पैसा कमाने और फिर दान करने से ज्यादा फायदेमंद एक संतुष्ट जीवनशैली है।
प्रभु महावीर स्वामीजी ने समवसरण में पुनिया श्रावक का स्मरण कर अपरिग्रहवाद को बढ़ावा दिया है।