महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : बाहरी दुनिया में रहते हुए कैसे बोलना चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए यह सब आपको दुनिया सिखा देगी। लेकिन जीवन को देखने का सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए, यह केवल गुरु ही सिखा सकते हैं। जैसा आपका दृष्टिकोण होता है, वैसी ही आपकी भाषा बनती है और वैसा ही आपका व्यावहारिक जीवन भी आकार लेता है। इसलिए यदि जीवन को बदलना है तो सबसे पहले अपना दृष्टिकोण बदलना आवश्यक है। यह दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए, यह समझना अत्यंत आवश्यक है ऐसा मार्गदर्शन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
परिवर्तन 2025 चातुर्मास महोत्सव के अंतर्गत आचार्य आनंदऋषिजी की जन्मजयंती के उपलक्ष्य में आयोजित “आनंदगाथा” सप्ताह के अवसर पर प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने आगे कहा, “गुरु एक जलती हुई ज्वाला हैं, एक अग्नि हैं।
अग्नि के भी दो प्रकार होते हैं एक जो रसोई में खाना पकाने के लिए उपयोग होती है, और दूसरी यज्ञ में, होम-हवन में उपयोग होने वाली अग्नि होती है, जिससे मंत्रों, तंत्रों, यंत्रों के उच्चारण से जीवन का निर्माण होता है। गुरु की महिमा ठीक उसी यज्ञ की अग्नि के समान है।
इसलिए हमें समझना होगा कि हमारी दृष्टि केवल चूल्हे में ईंधन डालने वाली होनी चाहिए या यज्ञ की अग्नि में आहुति देने वाली होनी चाहिए। जब भी आप कोई प्रवचन सुनें, तो अपने आप से एक प्रश्न अवश्य पूछें ‘क्या मैंने जो सुना, उससे केवल ज्ञान बढ़ा या मेरा दृष्टिकोण भी बदला?’
क्योंकि जीवन का निर्माण दृष्टि से होता है। दृष्टि से ही सृष्टि का जन्म होता है। यदि थोड़ी-सी भी सकारात्मक भावना हमारे भीतर उत्पन्न होती है और एक सकारात्मक दृष्टिकोण का जन्म होता है, तो निश्चित ही हमारा जीवन आनंद से भर जाएगा। जिस दिन दृष्टिकोण बदलेगा, उसी दिन से हमारे जीवन की वास्तविक यात्रा प्रारंभ होगी।”
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, “जो गुरु हमारे ऊपर कृपा की वर्षा करते हैं, जिनकी हम पूजा और भक्ति करते हैं वे गुरु इतने वंदनीय और पूजनीय क्यों होते हैं? यह प्रश्न क्या आपके मन में आता है?” इसका उत्तर है दृष्टिकोण। पूज्य बनने के लिए पूजनीय दृष्टि की आवश्यकता होती है। ‘पूज्य’ का अर्थ होता है पद, स्तर और गुणवत्ता।
‘पूज्य कौन होता है?’ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा “जो केवल शब्दों में जीते हैं, वे शब्दों के गुलाम होते हैं। लेकिन जिसे गुरु के भीतर की स्पंदनात्मक ऊर्जा, कंपन का अनुभव होता है, और जिसे शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, वही वास्तव में पूज्य होता है।
गुरु की इच्छा की केवल पूर्ति करना पूज्य होना नहीं है, बल्कि गुरु की आराधना करना ही पूज्यता है। गुरु की सेवा करते समय और उनके सान्निध्य में रहते समय जाग्रत रहना अत्यंत आवश्यक है। इसी से हमें सही दृष्टि प्राप्त होती है और वहीं से हमारा जीवन सही दिशा में बढ़ता है।”
