महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : हर समय आत्मपरीक्षण करते रहना ही सफल होने का मार्ग है। मेरे जीवन में जो कुछ भी होगा, उसके लिए मेरा कर्म या भाग्य ज़िम्मेदार नहीं होगा, बल्कि मैं स्वयं ज़िम्मेदार रहूँगा। ऐसे समय भाग्य या कर्म को दोष देने की बजाय यह देखना चाहिए कि स्वयं में किस प्रकार परिवर्तन लाया जा सकता है। यह प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
उन्होंने कहा कि स्वयं में परिवर्तन लाना ही परिवर्तन की वास्तविक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बाहरी और आंतरिक—दोनों स्तरों पर होती है। बाहरी परिवर्तन सत्ता, भय, संपत्ति, मोह, लोभ आदि से हो सकता है, लेकिन उसमें स्थिरता या गहराई नहीं होती। यदि वास्तविक परिवर्तन करना है, तो इसके लिए सबसे पहले अपने सपनों को देखना आवश्यक है। जब हम अपने सपनों और लक्ष्यों को बदलते हैं, तभी सच्चे अर्थों में परिवर्तन होता है।
परिवर्तन भी सहज नहीं होता। इसके लिए पहले किसी विषय के प्रति प्रेम उत्पन्न होना चाहिए। प्रेम के बाद उसमें श्रद्धा जन्म लेती है और तभी हम उस दिशा में आचरण करना शुरू करते हैं। जब हम किसी दूसरे में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं, तो अपने सपनों, लक्ष्यों या आचरण को उस पर थोपना व्यर्थ है। किसी भी कार्य में या परिवर्तन लाते समय प्रेम उत्पन्न होना अनिवार्य है।
जब हमारे सपने और लक्ष्य बदलते हैं, तो हमारे जीवन की दिशा भी बदल जाती है। यदि सामूहिक कार्य करना है, तो सपने एक होने चाहिए तभी लक्ष्य की एकता सम्भव है। इसके लिए सामने वाले व्यक्ति की भावनाओं को समझना, उसके मन के भाव और उद्देश्यों को जानना आवश्यक है। तभी आप उस व्यक्ति के मन की गहराइयों तक पहुँच सकते हैं।
किसी के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए सबसे पहले उसके दुःख को जानना, उसके सुख-दुःख में सहभागी बनना ज़रूरी है। दुःखी मन पर कोमल फुंकर रखनी चाहिए। इसका अर्थ है कि अपने जीवन के साथ-साथ हमें दूसरों के सपनों का भी सारथी बनना चाहिए।
