महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जीवन की यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। किस समय कौन-सा प्रसंग सामने खड़ा होगा, यह हम कभी नहीं कह सकते। ऐसे समय में हमारा मन दृढ़ खड़ा रहता है या डगमगा जाता है? उस क्षण मन की स्थिति ही हमारी मानसिकता को दर्शाती है। क्या आपने कभी अनुभव किया है कि ऐसी परिस्थिति में आपके भीतर असहायता का भाव जन्म लेता है या परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति आपके अंदर होती है?
असहायता के भाव से सहानुभूति, लाचारी और याचकता जन्म लेती है और यही बातें हमें अंदर और बाहर से कमजोर बना देती हैं। उदाहरण के लिए यदि पैर में काँटा चुभ जाए तो हम उसे वैसे ही नहीं छोड़ते, बल्कि उसे निकालने का प्रयास अवश्य करते हैं।
सामने आई परिस्थिति कैसी भी हो, लेकिन मर्यादाओं का उल्लंघन किए बिना, असहायता का भाव मन में लाए बिना उसका सामना करना चाहिए। जब हम स्वयं को असह्य मानते हैं, उसी समय हम अपने शरीर और शरीर की ग्रंथियों को भी वैसा ही बना देते हैं।
यदि हम बार-बार अपने आप को “न” का पाठ पढ़ाते रहे, तो शरीर भी उसी धारा पर चलकर नकार की आदत डाल लेता है और यह “न” हमारे जीवन का अविभाज्य हिस्सा बन जाता है। कभी-कभी परिस्थिति से जूझते समय मन में “ऐसा क्यों?”, “कैसे होगा?” जैसे प्रश्न उठते हैं।
उनकी ओर ध्यान न देना ही सबसे अच्छा उपाय है। यदि हमें अपने “स्व” के अस्तित्व, आत्मस्वरूप का अनुभव करना है तो ऐसी कठिन परिस्थिति से मुँह मोड़ना आना चाहिए। तभी हमें सफलता मिलेगी।
अपने मन और शरीर पर कठिन परिस्थिति का नियंत्रण होने न दें। यदि ऐसा हुआ तो परिस्थिति हमें अपनी इच्छा के अनुसार नचाएगी। इसलिए परिस्थिति का बड़ा मुद्दा न बनाते हुए, उससे भयभीत हुए बिना, उसका डटकर सामना करना ही उसे मात देने का सही उपाय है।
शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है, लेकिन उससे भय उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। यदि शंका की जगह भय ने ले ली, तो शंका का समाधान कैसे होगा? यदि हम इससे भागने लगे, तो यह भय और भी अधिक हमें पीछा करके भगाता रहेगा।
यदि हम मन से सच्चे हैं, तो शंका के पीछे छिपे भय का कोई अर्थ नहीं बचता। परिस्थितियों के झटके सहने के बिना जीवन को असली अर्थ ही प्राप्त नहीं होता। इसलिए स्वयं पर विश्वास रखकर अपने शाश्वत स्वरूप का अनुभव करें।
