महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : भावनाओं से ही विचारों की शुरुआत होती है। प्रारंभ में भावनाएँ मन और विचारों पर प्रभाव डालती हैं, और बाद में विचार भावनाओं पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। यह जीवन का एक कटु सत्य है।
सुबह उठते ही यदि हम तीर्थंकरों की अनुभूति को आत्मसात करें, तो वह अनुभूति हमें पूरे दिन प्रभावित करती है। यह ग्रहण करने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। इसमें कुछ बातें हम अच्छी समझकर ग्रहण करते हैं और कुछ बुरी समझकर त्याग देते हैं। परंतु वास्तव में अच्छा या बुरा ऐसा कुछ नहीं होता। जैसा हम ग्रहण करते हैं, वैसा ही उसका परिणाम होता है। शब्द, रूप, गंध या रस किसी भी माध्यम से जो हम ग्रहण करते हैं, उसमें अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता।
जैसे-जैसे हम ग्रहण करते हैं, वैसे-वैसे अच्छाई की अभिलाषा बढ़ने लगती है, और उसी से अतृप्ति बढ़ती जाती है। जहाँ मोह बढ़ता है, वहीं दुख का जन्म होता है। हमारे जीवन में जो प्रक्रिया प्रतिदिन चलती रहती है, उसी का उद्घाटन प्रभु करते हैं। कोई भी परिस्थिति वास्तव में अच्छी या बुरी नहीं होती; उसका मूल्यांकन हम जैसे करते हैं, वैसी ही वह परिस्थिति बन जाती है।
अच्छा करके पछताना नहीं चाहिए और गलत करके प्रसन्न नहीं होना चाहिए। यदि हम यह जीवन सूत्र समझ लें, तो जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान हमें मिल सकता है। जो व्यक्ति जीवन में सजग रहता है, उसे प्रमाद नहीं होता, और वह निरंतर आगे बढ़ता रहता है।
परमात्मा केवल साधुओं से ही नहीं बोलते; उन्हें विश्वकल्याण की चिंता रहती है, इसलिए उनके उपदेश सबके लिए होते हैं। जैन धर्म का मूल सिद्धांत यह है कि जो कर्म बंधे हैं, उनका क्षय करना आवश्यक है। भोग के लिए संसार है और कर्मक्षय के लिए धर्म है। जो कर्मक्षय के लिए पराक्रम करता है, वही सच्चा धार्मिक है। यही परमात्मा के धर्म का रहस्य है।
















