महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : सदैव दुःख की भावना में रहना या बदला लेने की मानसिकता रखना उचित नहीं है। जब तक मनुष्य दुःख को अपने भीतर थामे रखता है, तब तक उसके भीतर चैतन्यमय ध्यान उत्पन्न नहीं होता। दुःख हमेशा बीती हुई घटना होती है, अर्थात वह भूतकाल की बात है। इसलिए उसकी स्मृतियाँ भी केवल भूतकाल तक सीमित रहनी चाहिए। उन्हें वर्तमान में प्रवेश करने नहीं देना चाहिए। यही शुक्ल ध्यान की पहली शर्त है। इसके लिए ईश्वरभक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए। जब ईश्वर की स्मृति रहती है, तब दुःख की विस्मृति हो जाती है। ईश्वर के सान्निध्य में, उनके नामस्मरण में रहने वाला व्यक्ति दुःख का स्मरण ही नहीं करता।
जो बातें असंभव लगती हैं, उन्हें यदि आप संभव कर दिखाएँ, तो असंभव भी सहज साध्य हो जाती हैं। यदि लक्ष्य मेरिट का रखेंगे, तो कम से कम प्रथम श्रेणी में तो उत्तीर्ण होंगे ही। शुक्ललेश्या और प्रभुस्मरण का लक्ष्य रखिए।
जो इसमें समर्पित होते हैं, वे अपने जीवन में किसी भी प्रकार की छूट, सवलत या किंतु-परंतु की अपेक्षा नहीं रखते। उसे ही ‘अनघार’ कहा जाता है। क्योंकि परमेश्वरभक्ति में जो पूर्णत: रम जाता है, उसके सामने कोई भी समस्या समस्या नहीं रह जाती। आसक्ति कम होगी, तो अहंकार भी स्वतः कम होता जाएगा।
सक्ति का अर्थ है जबरदस्ती। यदि संबंधों में सक्ति आ जाए, तो वह रिश्ता जबरदस्ती से निभाना पड़ता है। लेकिन भक्ति के रिश्ते में ऐसी सक्ति कहीं नहीं होती। कहा गया है। “मूर्खों की मूर्खता ही समझदार लोगों के लिए कमाई का साधन होती है।”
इसलिए यह आराधना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। मैं केवल जैन समाज की बात नहीं कर रहा, बल्कि यह मार्ग हर मानव के लिए है। कि वह मानवता को अपनाकर आगे कैसे बढ़े।















