महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : बाहरी वातावरण से हमें अनेक बातें ज्ञात होती रहती हैं। उन्हीं के माध्यम से हमारा ज्ञान बढ़ता है और हमारे भीतर ज्ञान का एक सागर बनता जाता है। क्या आपने कभी यह सोचा है कि आपके ज्ञान की अवस्था क्या है? क्या आपने कभी उस पर गहराई से विचार किया है?
ऋषिजी ने ज्ञान की अवस्थाओं को समझाते हुए समुद्र का उदाहरण दिया है। वे कहते हैं कि समुद्र दो प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार में नदियाँ, नाले, झरने यानी बाहरी स्रोतों से समुद्र में पानी आकर मिलता रहता है। जबकि दूसरे प्रकार के समुद्र में भीतर ही स्वयंभू जलस्रोत होते हैं।
जो व्यक्ति सर्वज्ञ होते हैं, जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ होता है, उनका ज्ञानसागर स्वयंभू होता है अर्थात उनका ज्ञान उनके भीतर से, स्वभावतः उत्पन्न होता है। लेकिन हमारे भीतर का सागर बाहरी वातावरण से बनता है। हम स्वयं को चाहे कितना भी ज्ञानी समझें, पर हमारा ज्ञान सुनी-सुनाई बातों या पढ़ी हुई चीज़ों पर आधारित होता है। उस ज्ञान में अपने विचारों और चिंतन की ठोस नींव नहीं होती।
हमारी इंद्रियों के माध्यम से हमें ज्ञान प्राप्त होता है, परंतु जो व्यक्ति सर्वज्ञ होते हैं, जिनके पास उपजत ज्ञान होता है, वे अपनी इंद्रियों का उपयोग केवल देखने, सुनने या बोलने के लिए नहीं करते। उनके ज्ञान की यात्रा इंद्रियों से परे होती है।
उदाहरण के लिए, हमें आसमान में इंद्रधनुष दिखाई देता है, लेकिन सर्वज्ञ व्यक्तियों को वह नहीं दिखाई देता। इंद्रधनुष क्या है? तो वह सूर्यकिरणों से उत्पन्न रंगों का एक दृष्टिभ्रम है। यह दृष्टिभ्रम हमारी आँखों को तो दिखता है, परंतु सर्वज्ञ के ज्ञान से उनके नेत्रों पर यह भ्रम नहीं टिकता। वे किसी वस्तु को अपनी आँखों से नहीं, बल्कि अपने आत्मा से देखते हैं। वे कानों से केवल शब्द नहीं सुनते, बल्कि उन शब्दों को जानकर और समझकर ग्रहण करते हैं।
हम केवल देखने, सुनने और बोलने की क्रिया करते हैं, पर उनमें जो आनंद, सार और अनुभूति है, उसे नहीं पाते। इसके लिए हमें अपने भीतर झाँकना चाहिए। सर्वज्ञ व्यक्ति का ज्ञानसागर स्वयंभू होता है, इसलिए वह अपने में ही रमण करता है। लेकिन हमारे भीतर का सागर न तो स्वयंभू है, न आत्मरमणशील। हम स्वयं को जानने के बजाय दूसरों को जानने में अधिक रुचि रखते हैं, क्योंकि हम अपने भीतर नहीं रमते, इसलिए अपने “स्व” में आनंद नहीं पाते।
जब हम अपने भीतर नहीं रमते, तब कोई भी साधना चाहे वह ध्यान हो, तपश्चर्या हो या नामस्मरण करते समय हमारा मन विचलित रहता है। इसलिए यदि हमें उपजत ज्ञान को विकसित करना है, तो अपने भीतर ज्ञान के झरने, ज्ञान के स्रोत जगाने होंगे। ये झरने गुरु और सर्वज्ञ व्यक्तियों से प्राप्त ज्ञान की ऊर्जा को अनुभव करने से प्रवाहित होंगे।
जब हम उस ज्ञान की तरंगों को अपने भीतर अनुभव करने लगेंगे, तब हमारे भीतर उपजत ज्ञानसागर का निर्माण होने लगेगा।















