महाराष्ट्र न्युज नेटवर्क
पुणे : गृहस्थों को भी राग-द्वेष से जितना संभव हो, बचने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार के विचार आचार्यश्री महाश्रमणजी ने व्यक्त किए।
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शुक्रवार को महावीर समवसरण में उपस्थित भक्तिमान जनता को ‘आयारो आगम’ के माध्यम से मार्गदर्शन दिया। उन्होंने कहा कि कर्म के बंधन में पाप कर्म का बंध भी होता है और पुण्य कर्म का बंध भी।
पाप कर्म के बंध का मुख्य कारण मोहनीय कर्म होता है, जबकि पुण्य कर्म का बंध मोहनीय कर्म के अभाव से होता है। मोहनीय कर्म के अभाव में ही पुण्य कर्म का बंध होता है। राग और द्वेष को कर्म का बीज कहा गया है। राग-द्वेष समाप्त हो जाने पर कर्म का बंध नाम मात्र का रह जाता है। जो वीतराग पुरुष होता है, उसमें राग और द्वेष नहीं दिखाई देते।
सामान्य व्यक्ति कभी राग के भाव में डूबा हुआ नजर आता है तो कभी द्वेष के भाव से। मनोज्ञ रूप, रस, गंध, स्वाद आदि मिलने पर व्यक्ति राग भाव से ग्रसित हो सकता है। अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस आदि मिलने पर व्यक्ति द्वेष की ओर झुक सकता है। जो वीतराग होता है, वह न तो राग की ओर जाता है, न द्वेष की ओर। गृहस्थों को भी राग-द्वेष से जितना हो सके, बचने का प्रयास करना चाहिए।
गृहस्थ भी अपने जीवन में साधनाशीलता बनाए रखने का प्रयास करें। किसी के प्रति राग-द्वेष और घृणा से बचने का प्रयास करें। दूसरों को सुखी देखकर स्वयं दुःखी न हों, और दूसरों को दुःखी देखकर स्वयं सुखी न बनें।
व्यक्ति अपने भीतर ऐसे संस्कारों का विकास करे कि वह राग और द्वेष के भावों को उभरने से रोक सके। जगत में पदार्थ और व्यक्ति हैं, जिनका उपयोग हो सकता है, किन्तु राग-द्वेष के बिना समता भाव रखने का प्रयास करना चाहिए।
