महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : परंपरागत रूप से संयम, अहिंसा और नैतिक मूल्यों के लिए पहचाने जाने वाले जैन समाज में हाल ही में कई चिंताजनक परिवर्तन हो रहे हैं। युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में फंसती जा रही है, व्यापारी वर्ग सट्टा बाजार के आकर्षण में उलझ रहा है, और कई धार्मिक व सामाजिक संस्थाएँ केवल दिखावे तक सीमित रह गई हैं। साधु-संतों की व्यवस्था को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं, और समाज में संप्रदायवाद का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
यदि जैन समाज ने समय रहते इन समस्याओं का समाधान नहीं किया, तो इसके दूरगामी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।समाज के जागरूक नागरिकों और नेताओं को इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार कर आवश्यक सुधार लाने होंगे।
युवा पीढ़ी और नशे की लत
नवीन पीढ़ी आधुनिकता की आड़ में गलत आदतों को अपना रही है। संयम और सात्त्विक जीवनशैली का अनुसरण करने वाला यह समाज अब शराब, तंबाकू और अन्य नशों की ओर बढ़ रहा है। सोशल मीडिया पर प्रसिद्धि पाने की होड़ में युवा क्लबिंग, पार्टियों और नशे की आदतों का शिकार हो रहे हैं। परिवार और समाज की परंपराएँ कमजोर पड़ रही हैं, जिससे कई घरों में परेशानियाँ उत्पन्न हो रही हैं।
व्यापारी वर्ग और सट्टा बाजार
व्यापार जैन समाज की पहचान का अभिन्न अंग रहा है। लेकिन अब पारंपरिक व्यापार और नैतिकता को दरकिनार कर कुछ लोग सट्टा बाजार और जोखिम भरी निवेश योजनाओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। शेयर मार्केट, क्रिप्टोकरेंसी और अन्य हाई-रिस्क इन्वेस्टमेंट में नुकसान झेलने के कारण कई परिवार आर्थिक संकट में फंस रहे हैं। यह प्रवृत्ति समाज के आर्थिक संतुलन को प्रभावित कर रही है।
संस्थाएँ और दिखावटी संस्कृति
धार्मिक और सामाजिक संस्थाएँ पहले समाज को मार्गदर्शन देने का कार्य करती थीं, लेकिन अब इनमें से कई संस्थाएँ केवल प्रचार और भव्य आयोजनों तक सीमित रह गई हैं। सेवा और धर्म के मूल उद्देश्यों को छोड़कर, अब फोटोशूट, भव्य कार्यक्रम को अधिक प्राथमिकता दी जा रही है। इससे वास्तविक सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षा केवल बाहरी चमक-दमक पर ध्यान दिया जा रहा है।
साधु-संतों की स्थिति और प्रबंधन की कमी
जैन साधु-संतों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त है, लेकिन हाल के समय में उनकी व्यवस्था को लेकर कई विवाद सामने आए हैं। कुछ स्थानों पर साधु-संतों की आवश्यकताओं की अनदेखी हो रही है, जिससे उनके प्रवास, निवास और अन्य व्यवस्थाओं में कठिनाइयाँ आ रही हैं। कुछ मामलों में साधु-संतों पर आरोप भी लगे हैं, जिससे समाज में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
संप्रदायवाद का बढ़ता प्रभाव
जैन समाज, जो कभी अपनी एकता के लिए जाना जाता था, अब संप्रदायवाद की जकड़ में फंसता जा रहा है। धार्मिकता की जगह संप्रदायवाद को अधिक महत्व दिया जा रहा है, जिससे समाज की एकता को खतरा पैदा हो रहा है। इस कारण महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे उपेक्षित हो रहे हैं।
समाधान क्या है?
- माता-पिता को बच्चों में अच्छे संस्कार डालकर उन्हें नशे से दूर रखना होगा।
- व्यापारियों को जोखिम भरे निवेश की बजाय सुरक्षित और नैतिक व्यवसाय को प्राथमिकता देनी चाहिए।
- धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं को केवल दिखावे के बजाय समाज के हित में कार्य करना चाहिए।
- साधु-संतों की व्यवस्थाओं का उचित प्रबंधन किया जाना चाहिए।
संप्रदायवाद छोड़कर समाज की एकता को मजबूत करने पर ध्यान देना आवश्यक है।
