महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जो मिला है उसमें प्रसन्नता माननी चाहिए और जो नहीं मिला उसके दुख में उलझे रहना नहीं चाहिए। उसे उसी क्षण छोड़ देना चाहिए। यदि मन में खटक बनाए रखी और बार-बार सोचते रहे तो निश्चित ही आपका निद्रानाश होगा, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीण ऋषिजी म. सा. ने किया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि दैनंदिन जीवन में हम जो क्रियाएँ करते हैं, उनमें से सबसे सरल क्रिया निद्रा है। लेकिन क्या यह क्रिया सहज रूप से घटित होती है? या फिर नींद आने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं? और फिर नींद लाने के लिए गोलियाँ खाई जाती हैं। यह कितना उचित है? जो क्रिया स्वाभाविक रूप से होनी चाहिए उसके लिए हम अप्राकृतिक उपाय अपनाते हैं।
इससे हम अपने शरीर पर एक प्रकार का अत्याचार ही करते हैं। जो क्रिया सहज ही घटनी चाहिए उसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़े, इसका अर्थ है कि हमारे शरीर का तंत्र कहीं न कहीं बिगड़ चुका है। फिर उस बिगाड़ का कारण क्या हो सकता है, इसका भी विचार करना चाहिए। गोली खाकर शरीर को विश्राम अवस्था में ले जाने की अपेक्षा मन को तैयार करके विश्राम अवस्था में जाना अधिक लाभकारी है।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने आगे कहा कि दिनभर में जो अच्छी-बुरी घटनाएँ घट जाती हैं, उन पर हम बार-बार विचार करते रहते हैं। उन्हीं बातों में रमते हैं या फिर उन बीती बातों में ही जीते रहते हैं। अब जो घट गया वह घट चुका। केवल उसके बारे में सोचने से क्या वह घटना फिर से घटेगी? ऐसी बातों को पकड़े रहने में कोई अर्थ नहीं है। अंधकार और अंधकारमय जीवन ही मानो नरक है। ऐसी रात के अंधकार में हम अपने मन और शरीर को खेद और दुख जैसी भावनाओं से नरकयातना क्यों दें?
जैसा मन में बिठाओगे वैसा ही मिलेगा। यदि शिकायत करते हुए सोए तो निद्रा अवस्था में भी शिकायत का स्वर दिखाई देगा। लेकिन संतोष की भावना से सोए तो समाधि अवस्था प्राप्त होगी। यही सूत्र अगले जन्म में भी उपयोगी सिद्ध होगा। इसलिए हमें तय करना चाहिए कि अपने साथ क्या लेकर जाना है।
पलकों के बंद होते ही क्रोध और द्वेष के दरवाजे बंद हो जाने चाहिए और अंतरात्मा का दरवाजा खुलना चाहिए। निद्रा के समय मन के गहरे भावों में केवल परमात्मा और गुरु की मूर्ति होनी चाहिए। मन को अस्थिर करने वाली या बुरी बातें रोककर परमात्मा और गुरु के प्रति श्रद्धा की भावना आनी चाहिए।
इसके लिए प्रभु और गुरु की शरण लेकर निद्रा लेनी चाहिए। शरण का अर्थ ही है घर। हम प्रभु या गुरु के घर जा रहे हैं, उनमें लीन हो रहे हैं। यह भाव निद्रा के समय होना चाहिए। सब कुछ त्यागकर, सब कुछ भूलकर आत्मा स्वरूप निर्मल और निराकार होकर निद्रा ली तो आप स्वयं का अनुभव करेंगे। ऐसी श्रद्धापूर्वक ली गई निद्रा अवस्था निश्चित ही समाधि समान होगी।रखनी चाहिए।















