महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : पर्युषण पर्व फसल उगाने का नहीं बल्कि उत्तम बीज बोने का पर्व है। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंतरात्मा की खोज करना आवश्यक है। अपने आत्मा में जितना अच्छा बीज बोया जा सके, उतना बोना चाहिए, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म.सा. ने किया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म.सा. ने कहा कि हमारे आत्मा की यात्रा अनंत काल से चल रही है। आत्मा भले ही निर्मल और निराकार है, लेकिन बाहरी कारणों से उसके भीतर दूषित बीज बोए जाते हैं। इस आत्मा को शुद्ध और पवित्र बनाए रखने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाना आवश्यक है।
आज हमारा मन अभी भी सुख–सुविधाओं और समृद्धि के पीछे भाग रहा है, उन्हें प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयासरत है। किंतु असली संतोष कहाँ है, इसकी अनुभूति हमें नहीं हो रही। मन जिस तरह सुख और समृद्धि के पीछे दौड़ता है, उसी तरह संयम के लिए क्यों नहीं दौड़ता? संयम की जगह बार-बार असंयम ले रहा है।
ऐसे समय में परमात्मा ने हमें “अंतगड सूत्र” के रूप में एक दर्पण दिया है। अपने मन–चक्षु खोलकर उस दर्पण में झांकना अत्यंत आवश्यक है। यह सूत्र हमारे विचारों और अंतरात्मा में परिवर्तन ला सकता है।
मान लो भीतर कितना भी विष भरा हो, यदि उसमें अमृत की एक बूंद पड़ जाए तो वह विष भी अमृत में बदल सकता है। या फिर धुंध से ढकी राह को सूर्य की एक किरण साफ कर सकती है। उसी प्रकार अंतगड सूत्र की एक किरण संपूर्ण जीवन को बदल सकती है।
इसके लिए शरीर की भूख–प्यास मिटकर मोक्ष की प्यास जागनी चाहिए। कर्मक्षय की आग भीतर प्रज्वलित होनी चाहिए। ज्ञान और संयम की भूख हमें लगनी चाहिए। जब यह आग, भूख और आकर्षण जाग्रत होगा, तभी वास्तविक अर्थों में पर्युषण पर्व की शुरुआत होगी।
शरीर की पीड़ा पर बैठकर विलाप करने से बेहतर है कि आत्मा की वेदना कैसे दूर की जा सकती है, इस पर विचार करें। हमारे शरीर की चेतना और ऊर्जा केवल शारीरिक कष्टों की चिंता करने में ही क्यों लगी रहती है? आत्मा की वेदना का बोध हमें कब होगा? जिस दुःख की पीड़ा होती है, उसी को दूर करने का प्रयास हम करते हैं।
जैसे यदि हमें कांटा चुभ जाए तो हम उसे तुरंत निकालने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार अपने कर्मों का बोध होना आवश्यक है, तभी उनके दुःख और पीड़ा को समझकर उन्हें समाप्त किया जा सकता है। जब हमारी संवेदनाएं जाग्रत होंगी, तभी आत्मा की बीमारियों को दूर किया जा सकेगा।
आज हमें मोह, माया, क्रोध, अहंकार, लोभ और राग जैसे विकारों की जरा भी अनुभूति नहीं होती। इसलिए हम उन्हें दूर करने का प्रयास ही नहीं करते और इन्हीं विकारों में जीते रहते हैं। परिणामस्वरूप हमारी गलतियाँ हमें गलती नहीं लगतीं।
हम किए गए पाप के परिणाम से तो डरते हैं, लेकिन पाप करने से नहीं डरते। जब तक हमें अपने बुरे कर्मों का बोध नहीं होगा, तब तक उन्हें त्यागने का प्रश्न ही नहीं उठता और हम कर्म के बंधन में फंसे रहते हैं। अतः आत्मा से आत्मा का सच्चा मिलन करने के लिए अपने भीतर उत्तम गुणों का विकास करें और सकारात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास करें।
