महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : किसी पूज्य व्यक्ति में भी विचारों और कर्म का प्रवाह निरंतर चलता रहता है, लेकिन उसमें उनका असीम पुण्य समाविष्ट होता है। ऐसे विचार और ऐसे कर्म हमें अपने भीतर उतारने चाहिए। विचार बदलेंगे तो जीवन भी बदलेगा, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
उन्होंने कहा, अक्सर हमारे मन में जो विचारों का चक्र चलता रहता है, वही हमारे साथ घटित होता है। तब हमें समझ में नहीं आता कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। किंतु हमारी अनजाने में ही विचारों की प्रबल धारा इतनी तीव्र होती है कि उसके परिणामस्वरूप होने वाली क्रिया से हम अनभिज्ञ रह जाते हैं।
हम किस प्रकार विचार कर रहे हैं, हमारे भीतर कौन-से विचार प्रवेश कर रहे हैं, इसकी हमें जरा भी चेतना नहीं होती। इसलिए हमें अपने मन, अपने वचनों और अपने शरीर को सजग रखना चाहिए। मेरे भीतर कौन-से विचार प्रवेश कर रहे हैं? उनका प्रभाव कितना गहरा है? यह परखना चाहिए।
आप सोचें या न सोचें, लेकिन विचारों का प्रवाह भीतर निरंतर चलता ही रहता है। कुछ विचार और कुछ कर्म हमें नहीं चाहिए होते, फिर भी वे अनजाने में हमारे भीतर प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे समय पर हमें अपने विचारों और कर्म की संरचना की जांच करनी चाहिए।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, हम जो कथा या प्रसंग सुनते हैं, उसे सुनने के बाद शरीर में जो प्रक्रिया होती है और उसके बारे में लगातार चलते रहने वाले विचार – यह सब साधारण-सी क्रिया हमारे भीतर घटित होती रहती है। कोई घटना घट जाती है, लेकिन उसके विचार हमारे मन में निरंतर चलते रहते हैं।
जिन बातों पर हमें सचमुच विचार करना चाहिए, जिन अच्छे बीजों को हमें अपने मन में बोना चाहिए, वे हम नहीं बोते, उल्टे जिन बातों को मन में स्थान नहीं देना चाहिए, उन्हीं पर सोचते रहते हैं। वही विचार हम अपने भीतर घुमाते रहते हैं। वास्तव में उनसे स्वयं को मुक्त करना आवश्यक है। परिस्थिति के आगे झुकने के बजाय स्वयं में परिवर्तन लाना चाहिए।
जैसा बीज आप अपने भीतर बोएंगे, वैसा ही फल आपको मिलेगा। संभव है कि फल मिलने में देर हो, लेकिन बीज बोने से लेकर अंकुर फूटने तक की प्रक्रिया आनंददायी होगी। इसलिए अपने भीतर, अपने विचारों और मानसिकता में कैसे परिवर्तन ला सकते हैं, इस पर ध्यान देना चाहिए। जब आपके भीतर संयम और तपस्या की परंपरा निरंतर चलने लगेगी, तब निश्चित ही शुभ परिवर्तन का आरंभ हो जाएगा।
इसके लिए सरल उपाय यही है कि यदि आप शुभ का चिंतन करेंगे तो अशुभ पीछे हट जाएगा। आनंद उत्पन्न करेंगे तो दुःख समाप्त होगा। पुण्यकर्म करेंगे तो पाप घटेगा। जब पाप घटेगा तो मोक्ष का मार्ग खुल जाएगा। मोक्ष तो अंतिम परिणाम है, लेकिन वहाँ तक पहुँचने की प्रक्रिया हमारे हाथ में है।
उसे हम किस प्रकार करते हैं, इसका बड़ा महत्व है। स्वयं करते हुए हमें यह भी देखना चाहिए कि हम दूसरों से भी वह करवाने का सामर्थ्य रखें। क्योंकि जब हम किसी और को गढ़ते हैं, तब हम स्वयं भी गढ़ते हैं। इसलिए करने से अधिक करवाने पर ध्यान देना चाहिए। श्रद्धा, प्रेम, वात्सल्य और समर्पण की भावना को विकसित कीजिए। इससे दृष्टि बदलेगी, विचार बदलेंगे और निश्चित ही परिणाम भी बदले हुए दिखाई देंगे।
