महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : योग बोध का मार्ग है, अध्यात्म का मार्ग है। यह पलायन का नहीं, बल्कि आत्म-अनुभूति और अविष्कार दिखाने वाला मार्ग है। अपने जीवन में पीछे मुड़कर देखने वाला व्यक्ति रोगी या भोगी हो सकता है, परंतु योगी कभी पीछे नहीं देखता। किसी को भोजन कराना या उसके लिए अच्छी बातें करना यह पुण्यकर्म है, लेकिन ध्यान के माध्यम से स्वयं को भीतर से जानना – यही सच्चा अध्यात्म है। इसलिए पुण्यकर्म और आध्यात्मिकता में अंतर है।
योगी व्यक्ति भलीभांति जानता है कि बाहरी युद्ध से कोई लाभ नहीं। उसे अपने भीतर चल रहे अहंकार, मोह, माया और लोभ के युद्ध को रोकना होता है। योगी अपने भीतर के इन संघर्षों को समाप्त कर सकता है। योगी को अपना ध्येय ज्ञात होता है, इसलिए वह अपने विश्वास पर अडिग रहता है। उसने जो निर्णय लिया है, उस पर कभी द्वंद्व या शंका नहीं करता।
हजारों लोगों का मन जीत लेना, उन्हें अपना बना लेना – यह सफलता हो सकती है, परंतु जब मनुष्य स्वयं पर विजय प्राप्त करता है, स्वयं को स्वीकार करता है, वही वास्तविक सुख है। जिसने स्वयं को जीता, वही परम विजय प्राप्त करता है।
जिसने स्वयं को पूर्ण रूप से पहचाना, जिसे अपने अस्तित्व पर विश्वास है, जिसे अपने विषय में परम सत्य का ज्ञान है – उसके भीतर शांति और स्थिरता का निवास होता है। ऐसी व्यक्ति किसी भी प्रलोभन का शिकार नहीं होता, न ही भ्रम के महल बनाता है। बाहरी नकारात्मक परिस्थितियाँ भी उसके मन को स्पर्श नहीं कर पातीं।
मन में मौजूद क्रोध, अहंकार और सदैव अधिकार जताने की भावना हमारी ऊर्जा को क्षीण करती है। छल, कपट और मत्सर से हम अपनी ही प्रगति में बाधा डालते हैं। कोई भी कार्य करते समय यदि हम सजग होकर कार्य करें और उस क्रिया के पीछे का कारण हमें ज्ञात हो, तो वही अप्रमाद कहलाता है।
उदाहरण के रूप में, यदि आँख में मोतियाबिंद हो, तो केवल चश्मे का शीशा साफ करने से दृष्टि ठीक नहीं होगी; जब तक मोतियाबिंद मूल से हटाया न जाए, दृष्टि स्पष्ट नहीं हो सकती। इसी प्रकार जब मन में वैरभाव उत्पन्न हो, तो पहले भीतर झाँकें – संभव है, दोष हमारी ही दृष्टि में हो।
