महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जो कुछ हमारे पास है, वह हमें इसलिए मिला है क्योंकि हमने उसे माँगा था। हम क्या माँगते हैं या कौन-सी इच्छा अपने मन में रखते हैं, उसी के अनुसार हमें प्राप्त होता है। अपने भीतर जिज्ञासा जगाना ही शिष्य बनने का पहला मार्ग है।
जहाँ जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती, वहाँ शिष्यत्व समाप्त हो जाता है। हमारी ज्ञान-पिपासा कम नहीं होनी चाहिए। जिस चीज़ की हमारे जीवन में कमी होती है, उसी चीज़ की हमें लालसा रहती है। हमारे जीवन में श्रद्धा, समर्पण और ज्ञान की कमी है; उससे भी आगे भक्ति में भी अभाव है। और इस बात की हमें साधारण-सी अनुभूति भी नहीं होती। हमारी दृष्टि ही वैसी नहीं है या हमने उस दिशा में कभी देखा ही नहीं।
हमारे पास सम्यक दृष्टि होनी चाहिए। यह सम्यक दृष्टि हमें परमेश्वर की ओर ले जाने वाली होती है। ईश्वर तक पहुँचाने वाली होती है। मिथ्या दृष्टि हमें असत्य की ओर ही ले जाती है। जब तक हमारे भीतर इत्यादृष्टि रहती है, तब तक हम सम्यक दृष्टि को देख ही नहीं पाते।
इसलिए हमें ईश्वर तक जाने का मार्ग भी नहीं मिलता। इसी कारण ईश्वर के प्रति, उसकी भक्ति के प्रति, और उसे जानने के प्रति हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न ही नहीं होती। जिज्ञासा में ही सौभाग्य छिपा हुआ है।
प्रश्न पूछते समय भी हमारे मन में कौन-से भाव हैं, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमारे प्रश्नों से कोई आहत न हो, इसका ध्यान हमें रखना चाहिए। प्रश्न मंगलकारी होने चाहिए, दंगल करवाने वाले नहीं। हमारे प्रश्नों से किसी के मन में अहंकार, क्रोध, हिंसा, झूठ बोलने की प्रवृत्ति, भोग या वासना जैसी भावनाएँ उत्पन्न न हों। जब तुम ऐसे प्रश्न पूछना बंद कर दोगे, तब तुम्हें वैसी ही उत्तरें मिलना भी बंद हो जाएँगी।
इसलिए हमारे प्रश्न ऐसे होने चाहिए जो किसी के या अपने ही मन में जिज्ञासा उत्पन्न करने वाले हों। वे प्रश्न हमारे ज्ञान की प्यास को शांत करने वाले हों। “मुझे जीवन में क्या मिला?” यह सोचने के बजाय “मैंने जीवन से क्या माँगा?” इस पर एक बार विचार करना चाहिए। हमें क्या माँगना है, इसके लिए भी हमें समय देना चाहिए। जब हम ऐसा समय लेते हैं, तब हमारी दृष्टि भी बदल जाती है। सोचने की दिशा बदल जाती है।
अक्सर हमारे मुख से जब शब्दों के बाण निकल जाते हैं, उसके बाद हम सोचते हैं कि हमने क्या कहा। परंतु सही होगा यदि हम पहले ही यह सोच लें कि हमें क्या बोलना है।

 
			

















