महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : यदि हमें कोई चीज़ प्राप्त करनी हो, तो हम उसी का ध्यान लगाते हैं। उसे पाने के लिए हम अपनी पूरी शक्ति का उपयोग करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह शारीरिक शक्ति सदा समान रहती है या धीरे-धीरे घटती जाती है? जैसे युवावस्था में जो शक्ति हमारे भीतर होती है, क्या वही शक्ति वृद्धावस्था में भी रहती है? निश्चित ही, इन दोनों अवस्थाओं में बहुत अंतर होता है। इसका अर्थ यह है कि हमारे भीतर की शक्ति, प्रेम और गति समय के साथ धीरे-धीरे कम होती जाती हैं। लेकिन यह शक्ति हमें अपने वृद्धावस्था तक चिरस्थायी रूप से बनाए रखनी चाहिए। हमारे भीतर ऊर्जा का स्रोत जागृत रहना चाहिए। इसके लिए हमारे भीतर स्थित प्रज्ञा का जागरण बहुत आवश्यक है।
सरल शब्दों में कहें तो जैसे किसी टंकी में 100 लीटर पानी हो। उस पानी का जितना उपयोग होगा, उतना वह कम होता जाएगा। लेकिन एक छोटा-सा झरना, जिसका आकार भले ही छोटा हो, उसमें बहने वाला पानी निरंतर और शाश्वत होता है। ठीक वैसे ही हमारे शरीर और मन में एक शाश्वत प्रज्ञा-स्रोत प्रवाहित होता है उसे हमें जागृत करना चाहिए।
परमात्मा के शरीर में उसकी प्रज्ञा, उसकी इंद्रियाँ सब कुछ अक्षय हैं। उन्हें चाहे जितना भी उपयोग करें, वे कम नहीं होतीं, क्योंकि वह पूर्णता को प्राप्त हैं, सिद्ध हैं। हमें भी उसी पूर्णता की ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
अथाह दिखाई देने वाले समुद्र की भी सीमाएँ होती हैं, लेकिन हमारे भीतर की प्रज्ञा पर किसी सीमा का बंधन नहीं है। अर्थात, यदि प्रज्ञा अक्षय हो जाए, तो हमारा पूरा शरीर भी अक्षय हो जाएगा। हम जो बोलते हैं, सोचते हैं। प्रत्येक क्रिया का मूल प्रज्ञा ही है। यदि आपने अपने भीतर ज्ञान-प्रज्ञा को जागृत किया, तो आप जीवनभर ज्ञान का ही ध्यास रखेंगे।
किसी ने यदि धन के प्रति अपनी प्रज्ञा जागृत की, तो वह जीवनभर धन के ही विचारों में रहेगा। इसलिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि आप अपनी प्रज्ञा का उपयोग कहाँ और किस उद्देश्य से करते हैं। प्रज्ञा को जागृत करते समय उसका उपयोग सोच-समझकर करना चाहिए।
क्योंकि जैसी आपकी प्रज्ञा होगी, वैसा ही आपका शरीर और जीवन बनेगा। आपकी प्रज्ञा जैसी होगी, वैसा ही आपका आंतरिक और बाह्य स्वरूप तैयार होगा। इसलिए अपने भीतर कल्याण, समृद्धि, ज्ञान, सुरक्षा और आसू-प्रज्ञा जैसी प्रज्ञाओं को जागृत करना चाहिए।

















