महाराष्ट्र न्यूज नेटवर्क : अभिजित डुंगरवाल
पुणे : करुणामूर्ति परमात्मा महावीर स्वामीजी के 2580 केवलज्ञान कल्याण के अवसर पर श्री गुजरी जैनसंध कोल्हापुर में पंन्यास राजरक्षितविजय, पंन्यास नयरक्षितविजय आदि की पावन निश्रा में संगीत एवं संवेदना के साथ “वीर बने महावीर” कार्यक्रम आयोजित किया गया।
पं. राजरक्षितविजयजी ने कहा कि भगवान महावीर की आत्मा का विकास नयसार के भव से शुरू हुआ। जंगल में भटके हुए जैन मुनियों का सत्कार करके और भोजनका दान देकर नयसार को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई। 27 मुख्य भव थे। तीसरा भव मरीचि का था। युगादिदेव आदिनाथ से संयम ग्रहण किया।
परन्तु शरीर के राग के कारण अपना संयम खो दिया और शिष्य के राग ने अपना संयम खो दीया। भरत चक्रवर्ती ने भावी तीर्थंकर मरीचि मुनि को प्रणाम किया। तब मरीचि को अहंकार आ गया। मेरा कुल उत्कृष्ट है मेरा वंश उत्कृष्ट है और बहुत नाचे। कलिस्थ निचागोत्रा का गठन किया गया। अत: उन्हें कई भवो तक भिक्षुक कुल में जन्म लेना पड़ा।
शक्ति – संपदा – सौन्दर्य का अभिमान मत करो। अहंकार पतन का पायलट कार है। नंदराजर्षि के 25 वें भव में, भगवान की आत्मा ने कर्म से लड़ने के लिए 11,80,645 मासक्षमण कीए। अनंत कर्म नष्ट हो गये कुछ शेष कर्म 27वें भव में उदय आए। प्रभुवीर ने 30 वर्ष की आयु में दीक्षा ली और वन की ओर प्रस्थान कर गये। उसी दिन से कर्मा का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।
चंडकौशिक सर्प, शूलपाणि यक्ष, गोवलिया, संगम, गौशाला, कट – पूतना आदि ने मरणांत उपसर्ग किया। प्रभुवीर ने अग्नि से आहत होकर भी क्षमा का जल छिड़ककर सबको अपना बना लिया। मौन, ध्यान, एकांत में लीन प्रभु ने समभाव से कष्टों को सहन किया।
वैशाख सूद 10 मई को प्रभु महावीर स्वामी को दिन के चौथे पहर में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई जब वे जुंबक गांव के बाहर रिजुवालिका नदी के तट पर शालतरू के नीचे तपस्या कर रहे थे। प्रभु वीतराग – केवली – सर्वज्ञ हो गये।