महाराष्ट्र जैन वार्ता
परमात्मा ने कहा है कि परिग्रह (संपत्ति का संग्रह) पाँचवाँ पाप है। हम परिग्रह को हमेशा धन और संपत्ति के रूप में देखते हैं, इसीलिए उससे मुक्त होने की इच्छा भी नहीं होती। जितना अधिक व्यक्ति इसमें उलझता है, उतना ही अधिक पाप उसके साथ जुड़ता जाता है। लेकिन जो व्यक्ति इस मोह से मुक्त होता है, वही सच्चे अर्थों में स्वतंत्र होता है। हमें यह बात हमेशा स्मरण में रखनी चाहिए कि धन और संपत्ति कोई साध्य (लक्ष्य) नहीं, बल्कि केवल साधन है। यही संदेश प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने आज ‘परिवर्तन 2025’ चातुर्मास के पहले प्रवचन में दिया। उन्होंने परिग्रह, परिवार और शरीर – इन तीनों के मोह और आसक्ति से मुक्त होने की आवश्यकता पर विस्तृत, गहन और जीवनदर्शी मार्गदर्शन दिया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, जिनके पास ये तीन मनोरथ (आत्मिक संकल्प) होते हैं, वे वास्तव में संसार के सबसे धनी व्यक्ति होते हैं। और जिनके पास यह नहीं होता, वे संसार के सबसे दरिद्र माने जाते हैं।
स्वप्न देखना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन अनादिकाल की वासनाओं और मोहनीय कर्मों के कारण हम स्वप्नों में ही जीते रहते हैं। यदि हमें अपने जीवन को सही दिशा देनी है, तो पहले उन स्वप्नों की दिशा बदलनी होगी।
मन का रथ – मन, जन और धन के चारों ओर ही घूमता है। जब यह दिशा बदलेगी तभी लक्ष्य भी बदलेगा। और इसके लिए मन को प्रशिक्षित करना आवश्यक है।
पहला मनोरथ है – परिग्रह से मुक्ति। संपत्ति की गुलामी छोड़ना। हम परिग्रह को केवल धन, ऐश्वर्य के रूप में देखते हैं, इसलिए उससे मोह नहीं छूटता। लेकिन जब हम उसके बंधन को समझते हैं, तभी उससे मुक्ति की भावना जागती है। जो संपत्ति हमें प्राप्त होती है, उसका उपयोग साधन के रूप में करते हुए उसे परोपकार और मानवता की भलाई के लिए खर्च करना चाहिए। “दान” इस मनोरथ की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है। जब हम निर्मल हृदय से दान करते हैं, तब ही हम परिग्रह से मुक्त होते हैं।
दूसरा मनोरथ है – परिवार की आसक्ति से मुक्ति। “मैं और मेरा परिवार” यही भावना हमारे मन में सदैव चलती रहती है। जैसे मकड़ी के जाले में कीट फंसता है, वैसे ही हम भी परिवार के मोह में फंस जाते हैं। यह मोह सहजता से नहीं छूटता। परमात्मा या गुरु से जुड़ने की बजाय हम परिवार के मोह में उलझे रहते हैं। यदि धृतराष्ट्र को परिवार का मोह न होता, तो महाभारत घटित ही नहीं होता – यह हम नहीं समझते। जब कोई गुलामी स्वीकार करता है, तभी उससे मुक्ति की इच्छा जागती है। इसलिए स्वप्न भी ऐसे देखने चाहिए – जैसे भरत चक्रवर्ती, शालीभद्र जिस मार्ग पर चले, उसी पर एक दिन मैं भी चलूँगा। ऐसे स्वप्न ही एक दिन साकार होते हैं और वही दिन जीवन का सबसे आनंददायक और धन्य क्षण होता है।
तीसरा मनोरथ है – शरीर के मोह से मुक्ति। जब यह समझ में आता है कि यह शरीर सिर्फ एक निवास है और आत्मा ही अंतिम सत्य है, तब यह भी ज्ञात होता है कि मृत्यु ही मुक्ति का द्वार है। हमें यह सपना देखना चाहिए कि जिस सृष्टि को मैंने स्वयं रचा है, उससे मुझे मुक्त होना है। यही क्षण पूर्ण आनंद का क्षण होता है। संत ज्ञानेश्वर महाराज ने भी इसी को संजीवन समाधि कहा है। विशाल भक्त परिवार और सगे-संबंधियों के होते हुए भी उन्होंने आत्मा का बोध प्राप्त कर संजीवन समाधि को अपनाया। “मैं देह नहीं हूँ” – जब यह अनुभूति होती है, तभी सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
धन और परिवार – इन दोनों की जड़ हमारे शरीर में है। यदि यह शरीर न होता तो धन और परिवार का मोह भी न होता। संसार का हर प्रयत्न शरीर के प्रति आसक्ति को बढ़ाने का ही होता है। इसलिए इसके वास्तविक स्वरूप को समझना आवश्यक है। जब हम इन तीनों मनोरथों को समझ लेते हैं, तभी जीवन की यात्रा एक नई दिशा में आरंभ हो सकती है – ऐसा मार्गदर्शन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने आज के प्रवचन में दिया।


















