महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : बंधन कोई भी हो, चाहे वह परंपरा का बंधन हो, कानून का हो, सत्ता का हो या समय का बंधन हो, वह बंधन तोड़ना आना चाहिए। पशु बंधनों में जीते हैं, लेकिन बंधनों को तोड़ने वाले ही सच्चे पुरुषार्थी होते हैं, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म.सा. ने किया। परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में उन्होंने उपस्थित श्रद्धालुओं को मार्गदर्शन प्रदान किया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म.सा. ने आगे कहा, “बंधन तुम्हारे आकाश को तुमसे छीन सकता है। इसलिए दुर्भाग्य के बंधनों को तोड़ना आवश्यक होता है। जो लोग इन बंधनों को तोड़ पाते हैं, उनके लिए सौभाग्य के द्वार सदैव खुले रहते हैं।
दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने वाले अपने भाग्य के स्वयं स्वामी होते हैं। लेकिन जो दुर्भाग्य में ही जीते हैं, वे दुर्भाग्य के गुलाम बनकर रह जाते हैं। दुर्भाग्य को तोड़कर जो सौभाग्य प्राप्त करते हैं, उनके जीवन में ही सच्चे आनंद के फूल खिलते हैं।” इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कुलसुरज तिलोक ऋषि की पुण्यतिथि पर उनकी प्रेरणादायक कथा सुनाई।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म.सा. ने आगे कहा, “सच्चा गुरु वही होता है जो प्रश्नों को स्वीकार करता है। उसी प्रकार उनके गुरु ने भी उनके प्रश्नों को स्वीकार किया। कवि की रचना में कल्पना होती है, लेकिन साधु का जीवन व्रत महासत्य पर आधारित होता है। इसलिए साधु जीवन पर दोष लगाया जा सकता है।
तिलोक ऋषि ने यह बात समझकर अपने गुरु को वंदन किया और कहा, ‘यदि मैं किसी भी काल्पनिक कल्पना के बिना केवल सिद्धांतों को काव्य में रूपांतरित करूं, तो क्या आप मुझे आशीर्वाद देंगे?’ गुरु और शिष्य के इस निर्मल व विश्वासपूर्ण संबंध के आधार पर, तिलोक ऋषि ने आगम के किसी भी नियम का उल्लंघन किए बिना 70,000 रचनाएं कीं। इसका अर्थ यही है, चाहे आकाश में उड़ान भरनी हो, लेकिन वह उड़ान मर्यादा का उल्लंघन किए बिना ही होनी चाहिए।”
