महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जो शत्रु को मित्र बना दे, वही धर्म होता है। जो संकट को संपत्ति में बदल दे, वही धर्म होता है। जो काँटों को फूलों में परिवर्तित कर दे, वही धर्म होता है। इसलिए धर्म बहते हुए जल के समान होना चाहिए निर्मल, स्वच्छ, सबको समाहित करने वाली नदी या सागर की तरह, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि साधु-संतों की तुलना नदी से की गई है। जब कोई नदी बहती है, तो आगे चलकर उसका संगम होता है। इस मार्ग में अनेक पत्थर और बाधाएँ आती हैं, लेकिन वे इस जल को रोक नहीं पाते। वह जल उन पत्थरों के बीच से रास्ता बनाकर आगे बढ़ता रहता है।
मान लीजिए कि खारे पानी में मीठा पानी मिल जाए, तो वह अलग-अलग नहीं रहता, बल्कि एक-दूसरे में घुलमिल जाता है। ठीक वैसे ही पावन तत्वस्वरूप पूज्य गुरुदेव आनंदऋषिजी थे। वे स्वयं जल बनकर जिए और जल की तरह अनवरत बहते रहे। एक गंगोत्री के रूप में वे बहते रहे और उनके जीवन का गंगासागर बन गया, जो सबको अपने भीतर समेटता गया।
सागर में सभी को समाहित करने की कला होती है। इसलिए तीर्थंकरों को अन्य किसी उपमा से नहीं, बल्कि सागर की उपमा दी गई है। धर्म जो इधर-उधर अस्त-व्यस्त फैला हुआ था, उसे एक सूत्र में पिरोने का कार्य उन्होंने किया। उन्होंने संप्रदायों का विलय करके संगठन किया। संप्रदाय की संकीर्णता से धर्म को मुक्त कर प्रभु महावीर के धर्म को एक खुला आकाश प्रदान किया।
एक प्रकार से उन्होंने संगठन की शुरुआत की। जब कोई नया मार्ग बनाता है और उस पर चलता है, तो उस मार्ग पर अनेक बाधाएँ और अड़चनें आती हैं। लेकिन गुरुदेव नदी बनकर जिए और ऐसे ही बहते रहे। इसीलिए वे पारंपरिक व्यवस्था में रहकर भी नए युग के निर्माता बन गए।
परंतु जिस धर्म का संगठन हुआ है, उसका अब व्यवसायीकरण होने लगा है। इसका एक सरल उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, हमें पानी कहां से मिलता है? प्रकृति से या बोतल से? लेकिन इसका लाभ कौन कमाता है? वो जो उसे पैक करता है! धर्म का भी यही हाल है। धर्म तो भगवान का है, लेकिन आज हर कोई उसका व्यावसायीकरण कर रहा है।
आज हर संप्रदाय में प्रतिस्पर्धा, आरोप-प्रत्यारोप चल रहे हैं। इसमें सामान्य जनता और पीढ़ियाँ पिस रही हैं। लोग भ्रमित हैं कि किसका आदर करें, किस धर्म की कौन-सी परंपरा को प्राथमिकता दें। आज मन में जो यह भ्रम है, वही कल के दंगों का कारण बन सकता है।
संप्रदाय का विष जनमानस में फैलने लगा है। सांप्रदायिक दंगे अब धर्म के नाम पर किए जा रहे हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि जिसमें इतना द्वेष भरा हो, वह धर्म कैसा? वह तो लोगों को जोड़ने वाला होना चाहिए, लड़ाने वाला नहीं। इसलिए हमें कुछ करना आवश्यक है। धर्म और धर्म से जुड़ी अच्छी बातें तेज़ी से फैलनी चाहिए।
इसके लिए अष्टमंगल की प्रक्रिया, ध्यान आदि में बच्चों को कैसे जोड़ा जाए, इस पर विचार होना चाहिए। खेल और कला के माध्यम से बच्चों तक धर्म और उसके महत्व को पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए।
जब हम किसी कागज़ पर चित्र बनाते हैं, तो वह सिर्फ़ रेखाचित्र नहीं होता, बल्कि उसकी छवि बच्चे के मस्तिष्क में भी बैठ जाती है। रंगों का भी यही असर होता है। इसलिए बच्चों के लिए धर्म और धर्म से संबंधित चित्रों वाली रंग भरने की पुस्तक आज प्रकाशित की गई।
इन आकृतियों और रंगों से बने चित्र यदि बच्चों के मन में उतर जाएँ, तो स्वाभाविक रूप से उनमें परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। मानो हम धर्म का एक छोटा-सा बीज उनके भीतर रोपित कर रहे हों।
