महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : धर्म का अर्थ केवल ध्यान करना, तपस्या करना, प्रतिक्रमण करना या त्याग करना नहीं होता, बल्कि यह आत्मशुद्धि का निर्मल और शांतिपूर्ण मार्ग है। ऐसा स्पष्ट और मर्मस्पर्शी प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया। वे परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में संबोधित कर रहे थे।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि धर्म कोई संप्रदाय या पंथ नहीं है, बल्कि स्वयं को देखने और समझने की क्षमता है। इसलिए जीवन को स्थिरता, शुद्धता और आध्यात्मिक दिशा देने के लिए चार आधार स्तंभ बताए गए हैं।
भगवान महावीर ने कहा है कि अपने जीवन के आधार स्तंभों को हमें स्वयं गढ़ना होता है। इसके लिए हमें किस प्रकार प्रयास करना चाहिए, यह उन्होंने छह पहलुओं के माध्यम से बताया है। स्वयं को पहचानने के लिए यह देखना आवश्यक है कि – हम कैसे चलते हैं, कैसे बैठते हैं, कैसे खड़े रहते हैं, कैसे भोजन करते हैं, और कैसे सोते हैं।
हमारी ये प्रत्येक दैनिक क्रियाएं हमारे जीवन को गढ़ती हैं। यदि ये क्रियाएं सही पद्धति से न की जाएं, तो उसके दुष्परिणाम हमें ही भोगने पड़ते हैं। यदि हम अपनी चाल को पहचानकर उसमें सुधार करें, तो हमारा जीवन स्वयं ही संवरने लगता है।
अगर हम गलत तरीके से बैठते हैं, तो अपने ही शरीर को बीमारियों का निमंत्रण देते हैं। यदि हम ठीक से खड़े हों, तो शरीर को होने वाला कष्ट कम हो सकता है। कष्ट सहन करने से बेहतर है कि उस कष्ट से मुक्ति पाने का मार्ग खोजा जाए।
इसके लिए हमारी खड़े रहने की आदत कैसी है, इस पर भी सजगता से ध्यान देना आवश्यक है। भोजन केवल पेट भरने का कार्य नहीं है, वह भी एक प्रकार का यज्ञ है। इसलिए हम भोजन कैसे करते हैं, यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
नींद का हमारे शरीर के स्वास्थ्य से गहरा संबंध है। शरीर को पर्याप्त और उचित नींद मिलना आवश्यक है। नींद भी एक प्रकार की ध्यान की अवस्था होती है। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि यदि हर व्यक्ति इन छह बातों पर ध्यान दे और उन्हें अपने जीवन में अपनाकर सुधार करे, तो उससे जो व्यक्तित्व बनेगा, वह निश्चय ही वंदनीय और पूजनीय होगा।
