महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जो हमें हमारे सच्चे स्वरूप से जोड़ता है, वही धर्म होता है। ‘धर्म’ शब्द केवल किसी संप्रदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा को शुद्ध करने का, कर्मों से मुक्त होने का और प्रभु तक पहुँचने का रहस्य है, ऐसा उद्बोधन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया। वे परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचन माला में बोल रहे थे।
उन्होंने कहा, “अक्सर हम सोचते हैं कि बिगड़ने में समय नहीं लगता, लेकिन सुधारने में बहुत समय लगता है। यदि हम इस विचार को एक अलग दृष्टिकोण से देखें, तो शायद सच्चाई कुछ और ही समझ में आएगी। असल में बिगड़ने में भी समय लगता है, लेकिन सुधारने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है।”
उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “जैसे कोई रोग धीरे-धीरे शरीर में फैलता है, लेकिन उसे ठीक करने के लिए ऑपरेशन या दवा का असर अपेक्षाकृत कम समय में होता है। ठीक वैसे ही, अनादिकाल से किए गए कर्म जब कुछ क्षणों में ही नष्ट हो जाते हैं, तब समझना चाहिए कि हम धर्म के सही मार्ग पर हैं।”
जहाँ नकारात्मकता उत्पन्न नहीं होती, वही धर्म होता है। जहाँ दुःख नहीं आता या दुःखी नहीं होते, वही धर्म है। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने विचारों और धारणाओं को पहचानें। यदि वे गलत हैं, तो उन्हें बदलना जरूरी है।
धर्म के संदर्भ में बताई गई छह क्रियाओं में सबसे पहली क्रिया है हमारी चाल। यदि हम जीवन के दुःख समाप्त करना चाहते हैं, तो हमें अपने चलने का तरीका बदलना होगा। जिन्हें यह समझ आ गया कि कैसे चलना है, वे निश्चित ही अपने लक्ष्य तक पहुँचेंगे।
अपनी चाल इस प्रकार रखिए कि सफलता आपके चरणों में लोट जाए। लेकिन यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आप कैसे चल रहे है, सही तरीके से या गलत तरीके से। रास्ता कभी भी गलत नहीं होता, परंतु यदि आप सही रास्ते पर भी गलत तरीके से चलेंगे, तो आप भटक सकते हैं। दूसरी ओर, यदि आप गलत रास्ते पर भी उचित ढंग से चलें, तो भी सफलता मिल सकती है।
प्रभु कभी यह नहीं कहते कि रास्ता बदलो या चलना बंद करो। वे केवल यह कहते हैं कि अपनी चाल बदलो। और सबसे महत्वपूर्ण बात यदि लक्ष्य तक पहुँचना है, तो पहले अपनी ध्येयनिश्चिती (लक्ष्य की स्पष्टता) आवश्यक है।
चलना शुरू करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आपका लक्ष्य क्या है। जैसी आपकी इच्छा होती है, जैसे विचार होते हैं वैसे ही फल आपको प्राप्त होते हैं। इसलिए दिनचर्या की प्रत्येक क्रिया करते समय अपने लक्ष्य को स्पष्ट रूप से निर्धारित करें।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, “जब तक हमें यह समझ नहीं आता कि हम जो कदम उठा रहे हैं, वह क्यों उठा रहे हैं, तब तक हमारे चलने का कोई अर्थ नहीं होता। अन्यथा, हम केवल चलते रहेंगे, लेकिन कभी लक्ष्य तक नहीं पहुँचेंगे।”
उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “काम खत्म करके जब हम घर की ओर बढ़ते हैं, तो मन में सवाल आता है, क्या हम केवल घर जा रहे हैं, या अपने परिवार से मिलने जा रहे हैं? परिवार ही हमारा लक्ष्य होता है।
इसलिए, हमारा लक्ष्य स्पष्ट, शुद्ध और निर्मल होना चाहिए।” अंत में उन्होंने कहा, “ध्येयनिश्चिती ही यह तय करती है कि जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, वह सही है या गलत। इसलिए चलना शुरू करने से पहले अपने लक्ष्य को अवश्य निश्चित करें।”















