महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : उचित आहार के कारण विचार भी स्वस्थ बन सकते हैं। कई बार हमें अनेक बीमारियों का सामना करना पड़ता है। तब दवाइयाँ, डॉक्टर, अस्पताल जैसी चिकित्सा शुरू करनी पड़ती है। लेकिन यदि हम अपने भीतर थोड़ा सा बदलाव करके अपने भोजन की पद्धति में परिवर्तन करें, तो भविष्य में बीमारियों का सामना करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया। वे परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचन माला में बोल रहे थे।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा – “भोजन ही जीवन है।” भोजन से शरीर बनता है और इस शरीर से हमारी इंद्रियाँ सबल होती हैं। हमें प्राप्त हुई पाँचों इंद्रियाँ एक अनमोल देन हैं। इनमें जीभ एक महत्वपूर्ण इंद्रिय है। जैसे वाणी शब्द उच्चारण के लिए ज़रूरी है, वैसे ही भोजन ग्रहण करते समय जीभ की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जरा सोचिए, पहले जब हम खाना खाते थे, तब हमारा ध्यान उस भोजन पर कितना होता था? भोजन करते समय हम कितने सजग रहते थे? इसका अर्थ है कि कई बार हम केवल भूख लगी है इसलिए खा लेते हैं।
लेकिन यही भोजन हमारे शरीर को ऊर्जा देता है, इस बात को हम अपने रोजमर्रा के जीवन में भूल जाते हैं। वास्तव में, आहार ही हमारा आधार है। इसलिए भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण है।
यदि हम अपनी भोजन पद्धति बदल लें, तो हम बीमारियों को आमंत्रण नहीं देंगे। एक सरल बात यह है कि भोजन की आदतों को बदलने से हमें छह लाभ प्राप्त होते हैं, जिनमें से एक यह है कि हमारे शरीर और मन में जो भी पीड़ा होती है, वह शांत हो जाती है।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति भी हमें उचित आहार से ही मिलती है। हमारे शरीर, बुद्धि और विचारों का विकास होता है। साथ ही, हम अपने शरीर, मन और विचारों पर नियंत्रण रख सकते हैं।
रोज़मर्रा के तनावपूर्ण जीवन से जो मनोबल, आत्मबल और शरीर की स्थिति कमजोर होती है, वह फिर से सशक्त बनती है। हममें उत्साह और चेतना का संचार होता है। जब हम अस्वस्थ होते हैं, तो हमारे विचार भी अस्वस्थ हो जाते हैं।
हो सकता है कि गलत आहार के कारण जो बीमारी उत्पन्न हुई है, उसे दवाइयाँ ठीक कर दें। लेकिन भगवान महावीर द्वारा बताए गए छह सूत्रों का पालन किया जाए, तो आत्मा के रोग भी दूर हो जाते हैं। भोजन की पद्धति के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि हम क्या खा रहे हैं, इस पर भी ध्यान दें।
जब हम माँ के गर्भ में होते हैं, तब जो आहार मिलता है, वही सबसे पोषक और सात्त्विक आहार होता है। उसी से हमारा शरीर बनता है। हम जो कुछ भी खाते हैं, उसके अनुसार हमारी प्रवृत्ति बनती है, चाहे वह संयमित हो, राजसी हो या तामसी।
जिस प्रकार का भोजन होगा, उसी प्रकार के गुण हममें उतरते हैं। अगर हम जो खा रहे हैं, उसे पूरे मन से, भगवान का स्मरण करते हुए, शांत चित्त से खाएँ, तो फिर किसी योगासन या प्राणायाम की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
लेकिन यदि इन छह बातों की थोड़ी सी भी उपेक्षा की, तो जो बातें वरदान स्वरूप थीं, वे कब शाप में बदल जाएँगी यह पता भी नहीं चलेगा। इसलिए, शरीर में जो कुछ बोओगे, वैसी ही ऊर्जा तुम्हारे शरीर को प्राप्त होगी, यह बात हमेशा याद रखना आवश्यक है।
