महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : पानी बह जाने के बाद बाँध लगाने के बजाय समय रहते जीवन में बाँध लगाने से बहते मन को आकार दिया जा सकता है। यदि आपने स्वयं का परीक्षण किया, निरीक्षण किया और खुद को पहचाना, तो आप अपने जीवन के शिल्पकार बनेंगे- ऐसा प्रतिपादन प. पु. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
प. पु. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि घर के अंदर और बाहर, दोनों को जोड़ने वाला का दार का सामान (दरवाज़े की चौखट) होता है। उसी चौखट पर रखा दिया दोनों ओर को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार, यदि हमें स्वयं को सँवारना है तो उन दो चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे हम जुड़ने वाले हैं।
दो चीज़ों को जोड़ने का काम जो करते हैं, उन्हें ‘संधि’ कहा जाता है। इस संधि में हम भीतर से बाहर और बाहर से भीतर देख सकते हैं। इसी संधि-काल में हम स्वयं का परीक्षण कर सकते हैं। यह संधि-काल हमें विभिन्न प्रसंगों से प्राप्त होता है; उदाहरण के लिए हमारी नींद पूरी होना और जागना- इन दो क्रियाओं के बीच संधि-काल होता है।
उस समय हम अपने भीतर झाँक सकते हैं और तब अपने बाहरी कामों का मूल्यांकन कर सकते हैं। प. पु. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि नींद वास्तव में दिन भर के दोषों की शुद्धि की क्रिया है। नींद में हम स्वयं को अज्ञात की ओर ले जा सकते हैं।
पर यदि यह क्रिया पूर्ण नहीं हुई, यानी नींद के दौरान दोषों की शुद्धि नहीं हुई, तो उसका प्रभाव पूरे दिन बना रहता है। इसलिए जब आप सुबह उठें तो स्वयं के लिए केवल सात मिनट दें। सुबह उठकर लिया गया पहला श्वास यह तय करता है कि आपका आगे का दिन कैसा रहेगा।
अतः उसमें उलझकर न रहें – उस क्रिया से बाहर आकर पहला प्रसन्न श्वास लें। जब कोई क्रिया पूरी हो जाती है तो उसमें लिप्त न रहकर उससे बाहर निकलना आना चाहिए। किसी चीज़ में अटके रहने की अपेक्षा यदि आप उससे बाहर निकल पाते हैं तो समझो कि आप मुक्ति की ओर बढ़ने लगे हैं।
इसी प्रकार की क्रियाओं से ही हमारा जीवन आकार पाता है। इसलिए पिछले हुए कष्टों पर पछताना छोड़कर आने वाले कल के बारे में सोचना चाहिए – आज मेरा लक्ष्य क्या है? मैं कौन सा मार्ग अपनाऊँगा? उस मार्ग पर मैं कैसे चलूँगा? ये तीन प्रश्न सुबह उठने पर स्वयं से पूछें और यदि आप इन्हीं के आधार पर मार्ग चुनते हैं तो आपका प्रवास सरल हो जाएगा और वह आपको निश्चित रूप से इच्छित स्थान तक पहुँचा सकेगा।
इसीलिए जब आप स्वयं से प्रश्न पूछ रहे हों तो उन प्रश्नों का भान अवश्य होना चाहिए। बहुत बार बाद में होने वाले घटनाओं के प्रश्न पहले ही मन में आ जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, गुस्सा आने पर क्या करना है? इस प्रश्न के स्थान पर यह पूछा जाना चाहिए कि गुस्सा न आए — इसके लिए क्या करना चाहिए? यदि कोई घटना न हो इसके लिए पहले से ही मन में प्रश्न आने लगें, तो समझिए कि आपकी साधना/समाधि की ओर यात्रा शुरू हो चुकी है।
