महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : मैं सभी बंधनों से मुक्त हो सकता हूँ। मैं सिद्ध हो सकता हूँ। मैं परमात्मा हो सकता हूँ। क्या आपके मन में यह विश्वास है कि प्रत्येक समस्या का समाधान निकल सकता है? दुनिया के सभी तत्व हम स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन मोक्ष है – यह हम स्वीकार नहीं करते।
मोक्ष का अर्थ क्या है? – किसी भी वस्तु का शत-प्रतिशत पूर्णत्व को प्राप्त होना। “मैं सिद्ध हो सकता हूँ” – यह अपनी साधना में स्वीकृति है। गहराई से देखें तो जन्म और मृत्यु असत्य स्वरूप हैं, वे केवल एक लहर की तरह हैं।
लेकिन आत्मा चिरंतन सत्य है। इसलिए मेरा अस्तित्व शाश्वत है। जिसे अपने शाश्वत अस्तित्व पर विश्वास है, जिसने अपने अस्तित्व को स्वीकार किया है, उसके लिए मृत्यु असत्य हो जाती है। लेकिन जिसने अपने अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, उसके लिए जन्म-मृत्यु का चक्र ही सत्य प्रतीत होता है।
जैसा आपका विश्वास होगा, वैसा ही आपको अनुभव होगा। शरीर सत्य स्वरूप नहीं है; मैं ज्ञानमय हूँ, श्रद्धामय हूँ। यह शरीर किसी ने हमें दिया नहीं है, बल्कि हमने इसे अपने कर्मों से, अपनी इच्छानुसार बनाया है। इसलिए शरीर शाश्वत नहीं, बल्कि नश्वर है।
अब जो नश्वर है, उसमें अपनी ऊर्जा क्यों खर्च करनी चाहिए? इस शरीर का उपयोग किया जा सकता है, परंतु यह आग्रह करना कि शरीर शाश्वत रहे या रहना चाहिए – यह गलत होगा। इसलिए अपनी शक्ति ज्ञान, श्रद्धा और आत्मानुभूति में लगानी चाहिए।
क्या हम अपना जीवन पूर्णता के साथ जीते हैं? हमारी ऊर्जा परिवार और काम में बिखरी हुई रहती है। इस बिखरी हुई ऊर्जा और समय में क्या हम अपने लिए, स्वयं को जानने के लिए, आत्मानुभूति के लिए समय निकालते हैं? “समय नहीं है” – इस बहाने के पीछे हम स्वयं अपने बनने की प्रक्रिया में बाधा डालते हैं।
इसी एक बहाने से हम अपना शत-प्रतिशत नहीं दे पाते। यही कारण है कि जीवन पूर्णता तक नहीं पहुँच पाता और फिर से शून्य पर आ खड़ा होता है। आत्मा है, आत्मा पर श्रद्धा भी है, लेकिन आत्मानुभूति अभी तक हुई नहीं है।
इसलिए सबसे पहले अपने भीतर यह बुद्धि जागृत होने दें कि “मेरा आत्मा शाश्वत है।” उसके बाद अपने आप आत्मा पर श्रद्धा उत्पन्न होगी और फिर आत्मानुभूति का अनुभव प्राप्त होगा।
