महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, उसका बोध हमें होना आवश्यक है। जिसे हम श्रेष्ठ मानते हैं, उत्तम मानते हैं, उसी के अनुसार हमारा भविष्य निर्मित होता है। यूं ही किसी को श्रेष्ठ मानने से नहीं, बल्कि जब तक उस श्रेष्ठत्व की भावना हमारे तन-मन में उत्पन्न नहीं होती, तब तक शरणागति की भावना भी प्रकट नहीं होती। जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, उसका अनुभव हमारे भीतर होना अत्यंत आवश्यक है। किसी मोह या आकर्षण उत्पन्न करने वाली वस्तु को आप त्याग सकते हैं, लेकिन जब आप वास्तविक अर्थ में त्याग कर शरण स्वीकार करेंगे, तभी आप सिद्ध होंगे, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
उन्होंने कहा कि दैनिक जीवन में अनेक अच्छी-बुरी, उचित अनुचित बातें हमारे ध्यान में आती रहती हैं। कई बार बिना सही-गलत का विचार किए, अथवा उनके परिणामों की चिंता किए बिना, हम उनका अनुकरण करने लगते हैं और भ्रमवश उन्हें उचित मान बैठते हैं।
ऐसे समय में जीवन की यात्रा में चलते-चलते हम ठोकर खाते हैं, मार्ग से भटक जाते हैं और अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए सबसे पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि मुझे कहां जाना है और किस प्रकार जाना है।
यही तैयारी पहले से करनी चाहिए। इस कारण जब भी हम कोई क्रिया करें या अनुभव लें, वह अनुभव मंगलमय और उत्तम होना चाहिए। यह आग्रह मन में बनाए रखना चाहिए। किसी कार्य के बाद मिलने वाला आनंद क्या वास्तव में सच्चा आनंद है? उस आनंद से मुझे क्या अनुभूति हुई।
इस पर विचार करना चाहिए। जब तक वास्तविक मंगलमय आनंद की अनुभूति नहीं होती, तब तक हम शरणागति की स्थिति में नहीं पहुंच सकते। मंगलम का अर्थ है। सभी विघ्नों का नाश होना, पवित्र होना, शुभ होना।
जो दूसरों को श्रेष्ठ बनाते हैं और उन्हें सफलता के शिखर तक पहुंचाते हैं, वे ही मंगलमय कहलाते हैं। उनमें सदैव मांगल्य की अनुभूति होती है। साधु, त्याग, संयम, धर्म ये सभी मंगलकारी हैं। जहां आदर होता है, वहां से नमस्कार उत्पन्न होता है, और नमस्कार से उस व्यक्ति का सम्मान प्रकट होता है।
ऐसे व्यक्तित्व मंगलम और पूजनीय होते हैं। इन सबकी क्रमवार अनुभूति होने पर शरणागति की प्रक्रिया सरल हो जाती है। यदि आप द्विविधा की स्थिति में रहकर कोई कार्य करेंगे, तो वह कार्य सिद्ध नहीं हो सकता।
इसलिए यदि स्वयं को बदलना और गढ़ना है, तो जिसको शरण जा रहे हैं, वह मंगलमय और उत्तम है या नहीं इसका पहले भान होना चाहिए। और यदि वह ऐसा नहीं है, तो जिस शरण को आप स्वीकार करने जा रहे हैं, उसे न स्वीकार कर, उस शरण को ही बदल दीजिए। अन्यथा आप शरणागति की प्रक्रिया में कभी पहुंच ही नहीं पाएंगे।
