महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जिस प्रकार किसी वस्तु का उदय होता है, उसी के साथ उसका अस्त भी निश्चित रूप से आता है। हम अक्सर घटित घटनाओं में उलझे रहते हैं। उन्हें याद करके उनका बोझ मन पर ढोते रहते हैं। यह मन का बोझ उतारना आना चाहिए और जो परिस्थिति हमारे सामने है, उसमें भी आनंद ढूंढना आना चाहिए। किसी चीज़ में आनंद खोजना और उस आनंद को लंबे समय तक बनाए रखना — यह हमारे अपने हाथ में है। इसलिए हमें यह जानना चाहिए कि प्राप्त आनंद का अंत न होकर वह चिरंतन कैसे बना रह सकता है।
यदि हमें अपने भीतर उत्कृष्टता और श्रेष्ठता लानी है, तो हमारा उद्देश्य भी उतना ही उत्कृष्ट और श्रेष्ठ होना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले हमें स्वयं को अपना आदर्श मानना आवश्यक है। दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने के बजाय, अपने आप से प्रतिस्पर्धा करके यह समझना चाहिए कि हम कहाँ कमी महसूस कर रहे हैं, और उसमें सुधार करना चाहिए।
यदि कोई व्यक्ति नश्वर होते हुए भी जीता है, तो यह सच्चा चमत्कार है; लेकिन जब कोई व्यक्ति मर जाता है, तब हमें अधिक आश्चर्य होता है। किंतु सत्य यही है कि जो जन्मा है, उसे मृत्यु निश्चित है। हमारे भीतर ज्ञान, शील, श्रद्धा, प्रेम जैसी अनेक भावनाएँ समाई होती हैं।
ज्ञान की स्थिति जागृत होती है, लेकिन समय के साथ वह कम होती जाती है और अंततः लुप्त भी हो जाती है; यही बात श्रद्धा पर भी लागू होती है। किसी व्यक्ति के प्रति हम श्रद्धा रखते हैं, परंतु समय के प्रवाह में वह श्रद्धा भी कम होती जाती है।
वास्तव में यह ज्ञान, शील और श्रद्धा चिरंतन और असीम रहनी चाहिए। इनमें किसी भी प्रकार का विघ्न नहीं आना चाहिए, और इनमें निहित भावना पूरी तरह निस्वार्थ और निष्काम होनी चाहिए। जहाँ निस्वार्थ भावना होती है, वहाँ किसी वस्तु का अंत कभी नहीं होता।
उदाहरण के लिए हमारे मन में जागने वाली प्रेमभावना का स्वरूप क्या है, क्या हमने कभी सोचा है? उसके पीछे स्वार्थ छिपा है या निस्वार्थता? क्या हम बिना अपेक्षा के, पूर्ण निस्वार्थ प्रेम करते हैं? ऐसी निस्वार्थ भावना हमारे भीतर जागृत होनी चाहिए। 
यदि ज्ञान, श्रद्धा और शील निस्वार्थ हो जाएँ, तो वे चिरंतन बने रहते हैं। तब हमारे भीतर प्रज्वलित हुई ज्योति को कोई भी बुझा नहीं सकता, और ऐसा दिन अवश्य हमारे जीवन में उदय होगा। हम अक्सर अज्ञान में ही सुख मानते रहते हैं; और यदि कभी ज्ञान की अनुभूति होती है, तो कभी हम उसमें सुख के पल अनुभव करते हैं, तो कभी उससे कोई शिक्षा प्राप्त करते हैं।
किंतु कभी-कभी उसी ज्ञान के अनुभव से जब सत्य का बोध होता है, तब हमें दुःख भी हो सकता है। उस समय यह हमारे हाथ में होता है कि उस ज्ञान की प्राप्ति का उत्सव मनाना है या दुःख में ही सुख खोजना है। यदि हम अपने ज्ञान, चरित्र, प्रज्ञा, श्रद्धा और अपने गुरु के प्रति निःस्वार्थ भाव से समर्पित होकर निष्ठावान बनें, तो हमारा ज्ञान, प्रेम, चरित्र और श्रद्धा नंदनवन की तरह सदा खिलते रहेंगे।

 
			


















