महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जीवन की यात्रा में प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी के सहारे, मदद और साथ की हमेशा आवश्यकता रहती है। मनुष्य अकेले रहने की अपेक्षा मिल-जुलकर रहना अधिक पसंद करता है। अर्थात मनुष्य स्वभाव से ही संगप्रिय है। परस्पर मदद और सहयोग करने से एकता की भावना बढ़ती है। यदि कोई व्यक्ति पीछे रह जाए, तो हमें उसका हाथ पकड़कर उसे अपने साथ लेकर चलना चाहिए। इससे संगठन और एकता की भावना विकसित होती है।
यदि धर्म को जीवित रखना है, तो यह केवल संगठन से ही संभव है। पिछले कुछ समय से धर्म के विषय में जो प्रवाह देखने को मिला है, क्या हमने सोचा है कि नई पीढ़ी इसे किस रूप में स्वीकार करेगी? क्या उनमें धर्म के प्रति आस्था और श्रद्धा की भावना उत्पन्न होगी? उनके मन में धर्म के प्रति प्रेम और जागृति पैदा करना यह काम हमें मिलकर करना होगा।
इसके लिए हमें अपनी शक्ति अपने ही लोगों से लड़ने में खर्च करने के बजाय उन लोगों के विरोध में लगानी चाहिए, जो धर्मविरोधी हैं, ताकि हमारा पक्ष और हमारा धर्म और मजबूत हो सके। यदि हम टुकड़ों में बँटकर रहेंगे, तो हमारा धर्म भी टुकड़ों में बिखर जाएगा।
जब हम एक साथ रहते हैं, तब अपने आप सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो जाती है। ऐसे समय में कोई भी संकट सामने आए, तो हम मिलकर उसका सामना कर सकते हैं। एक-दूसरे का हाथ पकड़कर साथ चलने से आपसी प्रेम, अपनत्व और सुरक्षा की भावना प्रबल होती है।
संगठन का कार्य एक चक्र के समान है। चक्र का अर्थ है निरंतर घूमना। यदि रथ के चक्र की कोई आरी या कड़ी निकल जाए, तो चक्र की गति वहीं रुक जाएगी, और चक्र घूमना बंद कर देगा। इससे समझ में आता है कि यदि हम परस्पर सहयोग और समर्थन की भावना रखें, तो संगठन शक्ति बढ़ेगी।
हम सभी को एकजुट होकर धर्म का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए, धर्म का अध्ययन करना चाहिए और जब हम मिलकर धर्म की जनजागृति करेंगे, उसका जितना प्रचार-प्रसार करेंगे, तब धर्म को नया जीवन और नवचैतन्य प्राप्त होगा।
