महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : समाज व्यवस्था में परंपराओं का इतना अधिक महिमामंडन किया गया है कि समाज का भयभीत या असहाय चेहरा लगातार दिखाई देता है, और यही उचित है ऐसा मानकर हम भी उसी डर में जीते रहते हैं। जबकि यह भय स्वाभाविक नहीं है, बल्कि समाज व्यवस्था ने रूढ़ियों और परंपराओं के नाम पर अंधविश्वास फैलाकर पैदा किया हुआ भय है।
जिन बातों का कोई ठोस अस्तित्व या आधार नहीं है, जिन विचारों की कोई मजबूत नींव नहीं है, ऐसे भय हमारे मन में अनादिकाल से बोए गए हैं। जब तक मन में ऐसा भय रहेगा, तब तक हम न सत्य को स्वीकार करेंगे और न सत्य को बोल पाएंगे। इसलिए समाज में फैले इस भय का मूल कारण हमें ढूंढना चाहिए।
जो हमारी आस्था के अनुरूप नहीं है, जो सिद्धांतों में नहीं बैठता, उसके विरोध में हमें प्रश्न उठाना चाहिए — “यह ऐसा क्यों है?”। परंतु ऐसा प्रश्न मन में उठता नहीं, इसलिए हम आज भी अनेक रूढ़ियों, परंपराओं और उनसे जुड़ी मान्यताओं को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हम अंधानुकरण करते हुए इन मान्यताओं का पीढ़ी दर पीढ़ी पालन कर रहे हैं।
समाज और धर्म में कटु और गलत विचार फैलाए जा रहे हैं। जिन बातों को समाज व्यवस्था या समाज प्रमुखों ने निषिद्ध ठहराया है, वही बातें करने की ओर हमारा झुकाव अधिक होता है। इसके अलावा हमारे धर्म और समाज पर बाहरी विचारों का आक्रमण भी रुकना चाहिए और उस पर नियंत्रण होना चाहिए। यह काम भले ही एक व्यक्ति का न हो, लेकिन सामूहिक शक्ति से मिलकर हमें धर्म और समाज के प्रति बनी हुई अस्पष्ट मानसिकता को स्पष्ट करना होगा।
लोगों तक धर्म, समाज और समाज के सिद्धांतों की सही समझ और दर्शन पहुँचाना आवश्यक है। जिस गति से हम धर्म से संबंधित क्रियाएं और अनुष्ठान आगे पहुँचाते हैं, उसी गति से हमें समाज के विचार भी लोगों तक पहुँचाने चाहिए।
जब तक धर्म की अवधारणा और धर्म के विचार हमारी नस-नस में नहीं उतरते, हमारे मन में गहराई से नहीं बसते, तब तक धर्म से संबंधित प्रत्यक्ष आचरण सहज रूप से हमारे जीवन में नहीं आएंगे। जब धर्मानुसार आचरण हमारे जीवन में उतरेंगे, तभी समाज व्यवस्था को भी उचित दिशा और वळण मिलेगा।
