महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : संसार की भागदौड़ में हम अक्सर अपनी अंतरात्मा को भूल जाते हैं। भौतिक सुख में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपने आप से संवाद करना ही भूल जाते हैं। हम स्वयं की सान्निध्य से दूर हो जाते हैं। जीवन की असली संपत्ति बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि हमारे हृदय की संवेदनशीलता में निहित है। किसी के दुख को समझने के लिए उसके पास जाना आवश्यक है। इसी अनुभूति से हमारे भीतर अनेक भावनाओं के रंग उत्पन्न होते हैं। उनमें से एक है शुद्ध और निर्मल करुणा का रंग।
अपने अस्तित्व को जानने के लिए या दूसरों की भावनाओं को समझने के लिए हमें अपने जन्म से लेकर आज तक की जीवन यात्रा को आँखों के सामने रखकर देखना चाहिए। यह देखना जरूरी है कि हमारा दृष्टिकोण और व्यापक कैसे हो सकता है।
जीवन यात्रा का असली लक्ष्य भौतिक सफलता नहीं, बल्कि मोक्ष और समाधि होना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमें पहले ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अंततः हमें कहाँ पहुँचना है। मोक्ष या समाधि की अवस्था की ओर बढ़ते समय हृदय में नम्रता और लीनता होनी चाहिए।
जिस स्थान पर हमें अंततः पहुँचना है, वहां पहुँचते समय मन से नमन करें और पीछे मुड़कर देखें कि कहीं हमने किसी अन्याय तो नहीं किया, किसी को कटु शब्दों से दुख तो नहीं पहुँचाया, या किसी से किया गया वादा तोड़ तो नहीं दिया। यदि उत्तर हाँ है, तो इसके लिए मन से खेद महसूस करें।
अतृप्ति और असंतोष जैसी यादों को पीछे छोड़कर अपने भीतर की चेतना का संपूर्ण ध्यान रखें। समाधि के किनारे खड़े होकर कोई भी कष्ट या बोझ मन में बने रहने न दें। भावनाओं के बंधन को तोड़कर मुक्त होना सीखें। भले ही यह अरूप की ओर जाने वाला मार्ग हो, लेकिन समाधि की अवस्था दिव्य स्वरूप है।
मृत्यु प्रत्येक के लिए निश्चित है, लेकिन समाधि में होना केवल मृत्यु नहीं है, बल्कि स्वयं के और भी करीब जाना है। यह चेतना का स्वरूप बनने या आत्मा के स्वरूप से परिचय पाने का मार्ग है। शरीर, मन या अपने भीतर के ‘मैं’ को भूलकर यह जानना कि आत्मा शाश्वत है और उसके साथ एकरूप होना ही समाधि का सार है।
