महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जोवासनाएँ और विकार बहुत प्रयास करने पर भी शांत नहीं होते, वे जहाँ विसर्जित हो जाते हैं, सुप्त हो जाते हैं, उस वातावरण को समोशरण कहा जाता है। “वातावरण बदलो, संवेदनाएँ बदलें” – यही आज का सूत्र है।
केवल बाहर से मुक्त होना पर्याप्त नहीं है। अनादिकाल से हमारे मन में चल रहे मोहनीय कर्म से मुक्त होना आवश्यक है। उसके लिए श्रद्धा ज़रूरी है। ऐसी श्रद्धा मांगल्य की अनुभूति देती है।
शास्त्रों में लिखा है कि जहाँ सर्प और नेवला भी शत्रु नहीं रहते, वहाँ वे मैत्री भाव से रहते हैं।
भय समाप्त होकर जहाँ परम मैत्री का अनुभव होता है, जहाँ वासनाएँ और विकार शांत हो जाते हैं, उस वातावरण को ही समोशरण कहा गया है। इसकी रचना देवताओं द्वारा होती है। आने वाले 21 दिनों में हमें समोशरण की अनुभूति लेकर हर कदम पर स्वयं को समृद्ध करना है।
हम जहाँ भी जाएँ, अपने भीतर का समोशरण अपने साथ रखें, ऐसा प्रयास करना है। हमें प्रभु की मंगलमयी दृष्टि का अनुभव करना है। प्रभु के कल्याणकारी अस्तित्व की अनुभूति लेनी है। अपने तन, मन और भावनाओं को प्रभु को समर्पित करना है।
जब तक हम अपने विचार, दृष्टिकोण और धारणाएँ नहीं छोड़ते, तब तक प्रभु का सच्चा दर्शन संभव नहीं है। इसलिए हमें घटनाओं से मुक्त होना है। जो व्यक्ति घटनाओं से मुक्त हो जाता है, वही ईश्वर के निकट पहुँचता है – यही महत्वपूर्ण सूत्र है।
