महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : समय के साथ होने वाला अपराध वह है जो समय की बर्बादी कहलाता है, जिसका न तो प्रायश्चित संभव है और न ही क्षमा प्राप्त की जा सकती है। ज्ञान की साधना में किया गया अपराध आलोचना, प्रतिगमन और प्रायश्चित से शुद्ध किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के साथ किया गया अपराध क्षमा मांगकर उससे मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। लेकिन समय की बर्बादी के अपराध के लिए न तो क्षमा है और न ही आलोचना। इसके परिणाम भोगने ही पड़ते हैं।
समय ऐसी चीज़ है जो एक बार चली गई, तो कभी वापस नहीं आती। इसलिए समय के प्रति सजग रहना आवश्यक है। भले ही खोया हुआ ज्ञान दोबारा प्राप्त किया जा सकता है, भले ही चूकी हुई राह वापस मिल सकती है, भले ही खोया हुआ स्वास्थ्य लौट सकता है, और खोया हुआ धन भी वापस पाया जा सकता है।
लेकिन एक बार समय निकल गया, तो वह पूरी तरह चला जाता है और कभी वापस नहीं आता। समय का महत्व सहज रूप से महसूस किया जा सकता है, इसे बहुश्रुत कहते हैं। केवल पढ़कर और अभ्यास करके आप विद्वान तो बन सकते हैं, लेकिन बहुश्रुत नहीं।
जो जीवन जीना सीखता है, जिसने जीवन के विभिन्न आयामों को समझा, वही सच्चा बहुश्रुत होता है। हम स्वयं को, अपने परिवार को और समाज को बहुश्रुत बना सकते हैं। लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं कर पाते? इसका कारण यह है कि हम अपने अहंकार में जकड़े हुए हैं।
अपनी इच्छाओं के सामने भ्रमित हो गए हैं। क्रोध, अहंकार और आलस्य हमारे मनोवृत्ति के शत्रु बन गए हैं। हम अपना बहुत सारा समय दूसरों की निंदा करने, दूसरों के पांव खींचने और आलस्य में बिताते हैं।
जबकि जिसकी दृष्टि उच्चतम, श्रेष्ठतम लक्ष्य की ओर होती है, वह अपना समय इस प्रकार की चीज़ों में बर्बाद नहीं करता। वह शिक्षाशील होता है। ऐसी व्यक्ति सामर्थ्यवान होती है। वह समय की बर्बादी नहीं करती, आक्रोश नहीं करती, उसे सत्य प्रिय होता है।
जिसकी दृष्टि केवल श्रेष्ठतम की ओर होती है, वह कभी अल्पश्रुत नहीं रह जाता। वह स्वयं को और दूसरों को सफलता के शिखर तक ले जाता है। वही सच्चा बहुश्रुत होता है। बहुश्रुत बनने के लिए सबसे पहले अपने चारों ओर अनुशासन और नियम स्थापित करने पड़ते हैं।
जब लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अनुशासन और नियमों का सही प्रबंधन होता है, तभी सभी संभावनाएँ सत्य में परिणत होती हैं।


















