महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : जीवन में गुरु का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। उनकी कृपा-दृष्टि हमारे लिए सबसे बड़ी सौभाग्य की बात होती है। इसलिए हमें यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हमारे किसी भी कर्म से गुरु को कभी पश्चाताप या खेद महसूस करने की स्थिति न आए, जिससे उनकी कृपा-दृष्टि रुक जाए। यह अमूल्य मार्गदर्शन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने परिवर्तन चातुर्मास २०२५ के प्रवचनमाला में उपस्थित श्रोताओं को दिया।
जीवन में गुरु का स्थान अत्यंत महान और सर्वोच्च होता है। उनकी कृपा-दृष्टि हमारे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। इसलिए हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे हाथों कोई ऐसा पाप न हो जिससे हमारे गुरु को पश्चाताप या खेद का अनुभव हो, और उनकी कृपा-दृष्टि हमसे हट जाए।
ऐसा अमूल्य मार्गदर्शन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने अपने प्रवचन में किया। वे परिवर्तन चातुर्मास २०२५ की प्रवचनमाला में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा, “अपने प्रभाव को दर्शाने के लिए कभी भी अहंकारवश अपनी शक्तियों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
यह सबसे बड़ा पाप होता है, क्योंकि भगवान और गुरु ने जो शक्तियाँ हमें प्रदान की हैं, उनका यह दुरुपयोग होता है। जब कोई शिष्य ऐसा करता है, तो सबसे अधिक वेदना उसके गुरु को होती है। यह भावना कि ‘जिसे हम दे रहे हैं, वह इसके योग्य नहीं है’ – गुरु को गहरी पीड़ा देती है।”
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने गुरु भद्रबाहु और शिष्य स्थुलिभद्र की एक प्रेरणादायी कथा का उल्लेख किया और उससे अत्यंत मार्मिक संदेश दिया। उन्होंने कहा, “प्राचीन काल में स्थुलिभद्र नामक एक शिष्य ने भी ऐसी ही एक गंभीर गलती की थी।
अपने बड़प्पन और सिद्धि को प्रदर्शित करने के लिए उसने धर्म-साधना से प्राप्त ज्ञान और आत्मसाक्षात्कार से मिली सिद्धियों का दुरुपयोग किया। दूसरों पर प्रभाव डालने के उद्देश्य से उसने सिंह का रूप धारण किया।
सिद्धियों का उपयोग कर वह अपना प्रभाव जमाना चाहता था। “जब यह बात गुरु भद्रबाहु को ज्ञात हुई, तो वे अत्यंत व्यथित हुए, क्योंकि उनके शिष्य से बड़ा पाप हो गया था। जब शिष्य को अपनी गलती का एहसास हुआ, तो उसने क्षमायाचना की और प्रायश्चित करने की इच्छा जताई, लेकिन कुछ पाप ऐसे होते हैं जिनके लिए क्षमा नहीं होती।”
इस कथा का संदर्भ देते हुए प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा, “अपने गुरु को कभी भी पश्चाताप की स्थिति में मत लाइए। ऐसा कोई भी कार्य आपके द्वारा न हो जिससे गुरुकृपा रुक जाए।
ऐसी भूलों के कारण ही हम समुद्र के किनारे तक पहुँचकर भी डूब जाते हैं।” “इसलिए धर्म की आराधना करते समय कभी भी अपनी शक्ति, सामर्थ्य या प्रभाव का प्रदर्शन न करें। धर्म के क्षेत्र में अपना स्थान जताने या अपनी छाप छोड़ने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।
विनम्रता से की गई सेवा ही हमें आगे बढ़ाती है। इसलिए अपना मस्तक केवल भगवान के चरणों में झुकाइए और उन्हें पूर्ण समर्पण कीजिए वहीं से आपके जीवन का कल्याण संभव है।”
