महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : भगवान महावीर का पुत्र बनना ही सच्चा पुरुषार्थ है और इसी में जीवन की सार्थकता है, ऐसा संदेश प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर अपने जीवनस्पर्शी एवं बहुमूल्य प्रवचन में दिया। उन्होंने कहा कि जब आप यह कहेंगे कि “मैं भगवान महावीर का पुत्र हूँ”, तब यह स्मरण रखें कि अपने पिता की प्रतिष्ठा और गौरव को बढ़ाना ही पुत्र का धर्म होता है। ऐसा कोई कार्य मेरे हाथों से हो, जिससे जिनेश्वर कुल की शोभा बढ़े यही भावना होनी चाहिए।
कुल का कलंक (कुलांगार) नहीं, बल्कि कुल का श्रृंगार बनें। कैकेयी, मंथरा, जरासंध जैसे कुलांगार नहीं बनना है। हम जिनेश्वर कुल के वारिस हैं — इस स्मृति को कभी न भूलें। महावीर का पुत्र सदा आराधक होता है।
स्वयं से एक वचन लें – “मैं महावीर का पुत्र बनूँगा।” इसी में जीवन की पूर्णता है। अपने मन में ठान लें “मैं स्वयं नहीं गिरूंगा और किसी को गिरने नहीं दूंगा।” उन्होंने यह भी कहा कि तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है? केवल सुख की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकती।
जीवन का उद्देश्य शिखर तक पहुँचना, सिद्ध बनना होना चाहिए। इसके लिए मानसिकता, दृष्टिकोण और लक्ष्य को परिवर्तित करना होगा। सुख की लालसा कब अशुभ कर्म करा दे, यह कहा नहीं जा सकता।
इसलिए जीवन में आत्मसंयम आवश्यक है। यदि तुम संयमी बनोगे, तो आनंद स्वयं तुम्हारे जीवन में चला आएगा। अगर भगवान राम का लक्ष्य केवल आनंद प्राप्ति होता, तो क्या वे राज्याभिषेक के समय हँसते हुए वनवास स्वीकार कर पाते?
इसलिए स्वयं को बदलो। परिवर्तन का अधिकार केवल मनुष्य को प्राप्त है, इसका सदुपयोग करो।
आषाढ़ी पूर्णिमा का महत्व बताते हुए प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा यह दिन शाश्वत परिवर्तन का प्रतीक है। यह दिन शाश्वत क्रांति की शुरुआत का पर्व है। यह दिन हमारे संस्कारों, चरित्र और आत्मा में क्रांति एवं सकारात्मक परिवर्तन लाने का अवसर है।
इस दिन अहिंसा का सही अर्थ समझें “मैं किसी के जीवन-पथ में बाधा नहीं बनूंगा।” इस भावना के साथ अपने जीवन की दिशा तय करें।
