महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : “वैश्विक कर्म या भाग्य को बदला नहीं जा सकता, ऐसा कौन कहता है? वह सामर्थ्य और क्षमता तो आपमें ही है,” यह प्रेरणादायी वक्तव्य प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने परिवर्तन 2025 चातुर्मास के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में अपने उद्बोधन के दौरान दिया।
उन्होंने कहा कि हमें सभी को साथ लेकर सामूहिक रूप से अपने ध्येय की प्राप्ति करनी चाहिए, ताकि कोई भी उससे वंचित न रह जाए। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने आगे कहा, “केवल यह मत सोचिए कि मैं मोक्ष प्राप्त करूंगा, मैं कर्मों की निर्जरा करूंगा। इसके बजाय यह सोचिए कि विश्व के सभी प्राणियों को मोक्ष मिले, कोई भी वंचित न रहे। यह व्यापक सोच ही सच्चा धर्म है।”
कर्म दो प्रकार के होते हैं — व्यक्तिगत और वैश्विक। इन दोनों में वैश्विक कर्म अधिक प्रभावशाली होता है। हमें यह दृष्टि विकसित करनी चाहिए कि सम्पूर्ण विश्व ही ईश्वर का रूप है। संत ज्ञानेश्वरजी ने ‘पसायदान’ में किसी विशिष्ट देवता जैसे विष्णु, शंकर आदि का नाम नहीं लिया, बल्कि ‘विश्वात्मके देवे’ ऐसा संबोधन किया।
क्योंकि उन्हें वह विश्वात्मा दृष्टि और सामर्थ्य प्राप्त हुआ था। इसी कारण उन्होंने केवल 20 वर्ष की आयु में अपना जीवन संघर्ष समाप्त कर दिया, फिर भी आज सैकड़ों वर्षों बाद भी उनके नाम का जयघोष करते हुए लाखों श्रद्धालु वारी में सम्मिलित होते हैं।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने आगे उदाहरण देते हुए कहा — महात्मा गांधी और सशस्त्र क्रांतिकारियों में एक ही बड़ा अंतर था, और वह था सामूहिकता का। गांधीजी ने स्वतंत्रता संग्राम को एक व्यक्ति की लड़ाई न बनाकर पूरे राष्ट्र का आंदोलन बना दिया। जब प्रयास सामूहिक होते हैं, तभी वैश्विक सकारात्मक कर्म जन्म लेते हैं, और यही कर्म सबसे शक्तिशाली होते हैं।
समाज में परिवर्तन लाना एक सामूहिक प्रयास है। जब सब मिलते हैं, तो पर्वत को भी स्थानांतरित किया जा सकता है। एक बूँद को मीठा करने की बजाय यदि सागर को ही मीठा बना दिया जाए, तो वह बूँद भी स्वतः ही मधुर हो जाती है।
कार्य की व्यापकता आवश्यक होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसका उत्तम उदाहरण है, जिन्होंने सामूहिकता का विशाल सागर खड़ा किया है। तो आइए, हम भी ऐसा ही सपना देखें — हम सब एक हों, पुण्यशाली बनें, सिद्ध बनें… और विश्व के सकारात्मक भाग्य निर्माण में सहभागी बनें।
