महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : ज्ञान साधना के माध्यम से ही हमें शरीर और मन की स्थिरता प्राप्त हो सकती है। जीवन में यह संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया। वे परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित आनंदगाथा सप्ताह की प्रवचनमाला में बोल रहे थे।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि शरीर के लिए ध्यान आवश्यक है। सामायिक क्रिया करना और सामायिक साधना करना इन दोनों में बड़ा अंतर है। जिस प्रकार योग से शरीर पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान के माध्यम से शरीर और मन दोनों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। ध्यान साधना के जरिए परिपक्व देह की प्राप्ति संभव है, और हमें यही साधना जीवन में करनी चाहिए।
ध्यान का महत्व बताते हुए उन्होंने कहा कि ध्यान के कई प्रकार होते हैं। क्या हम किसी एक आसन में स्थिर बैठना सहजता से कर सकते हैं? क्या हम एक ही स्थान पर, एक ही स्थिति में, ईश्वर जैसे शांत और स्थिर होकर बैठ सकते हैं? अक्सर नहीं, क्योंकि हमारा चित्त विचलित होता है और धीरे-धीरे शरीर में कहीं न कहीं पीड़ा का अनुभव होने लगता है।
यह पीड़ा ही आर्त ध्यान की शुरुआत होती है। आर्त ध्यान का अर्थ है, निरंतर शारीरिक पीड़ा का अनुभव। यह देह स्वयं में दुख को संजोए हुए है, इसलिए इस देह को दुखों से मुक्त करना आवश्यक है। जब यह मुक्ति मिलेगी, तब वह सामायिक ध्यान साधना का रूप ले लेगी।
उन्होंने कहा कि यदि दिन में कुछ क्षण ऐसे बीतें जब कोई भी नकारात्मक विचार हमारे मन को स्पर्श तक न करे, तो हम अपार ऊर्जा का अनुभव कर सकते हैं। इसी प्रकार यदि दिन के कुछ पल ऐसे हों, जब शरीर को तनिक भी पीड़ा का अनुभव न हो, तो विचार करें शरीर में कितनी शक्ति का निर्माण होगा।
इसके लिए यह समझना आवश्यक है कि शारीरिक पीड़ा उत्पन्न ही न हो, यह कैसे सुनिश्चित किया जाए। जब हमारा मन शुद्ध होगा, उसमें कोई दूषित या दुर्भावनापूर्ण विचार नहीं होंगे, हमारी वाणी और कर्म शुद्ध होंगे तभी हमारा शरीर व्याधि-मुक्त हो पाएगा, और उसी के माध्यम से शरीर में स्थिरता आएगी।
जब शरीर स्थिर होगा, तब समझना चाहिए कि हमारे मन और विचारों में परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है। भगवान महावीर कहते हैं कि शरीर पर नियंत्रण पाना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि मन निराधार है और उसका आधार केवल शरीर ही है।
इसलिए हमारा शरीर ऐसा होना चाहिए जो पीड़ा-मुक्त और व्याधि-मुक्त हो तभी वह अंतर्बाह्य रूप से शुद्ध हो सकेगा। इसके लिए प्रयास करना भी आवश्यक है। आत्मा ईश्वरीय स्वरूप हो सकती है, लेकिन शरीर तो शरीर ही होता है। हमारे शरीर को चलने, बैठने, बोलने जैसी क्रियाओं का प्रशिक्षण बचपन से ही मिल जाता है, लेकिन शरीर और मन को साधने का प्रशिक्षण हम नहीं देते।
बिना उचित अनुशासन, मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के शरीर नहीं सुधरता। शरीर, मन और वाणी इन सभी को सही दिशा में प्रशिक्षित करना आवश्यक है। और यही कारण है कि यदि जीवन में सशक्त देह चाहिए, तो ध्यान साधना आवश्यक है।
