महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : संवाद आपको देवत्व की ओर ले जा सकता है, जबकि वाद-विवाद आपको दानव भी बना सकता है। संवाद के माध्यम से भक्ति का संबंध जुड़ता है, जबकि वाद-विवाद से विरोध और तिरस्कार का रिश्ता बनता है। इसलिए, स्वयं को पहचानकर अपने भीतर मौजूद अज्ञान को स्वीकार करते हुए हमें स्वयं को समृद्ध बनाने के लिए ज्ञान का मार्ग खोलना चाहिए ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया। वे परिवर्तन चातुर्मास 2025 के अंतर्गत आयोजित प्रवचनमाला में बोल रहे थे।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा – जैसे कोई मूर्तिकार एक मूर्ति गढ़ता है या कोई चित्रकार एक चित्र बनाता है, उसी चित्र या मूर्ति के अनुसार ही जनमानस में उस मूर्तिकार या चित्रकार की ख्याति बनती है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व का भी निर्माण होता है।
जब हम दूसरों से संवाद करते हैं, तो उसमें हम जिन शब्दों और भाषा का प्रयोग करते हैं, उसके अनुसार ही सामनेवाले को हमारा चरित्र दिखाई देता है। इसलिए संवाद करते समय हमारी वाणी कैसी है, हमारी भाषा कैसी है, इस पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है।
भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो हमें समृद्ध बनाए, क्योंकि उसी समृद्धता से हमारा भाग्य, चरित्र और श्रेष्ठता निर्धारित होती है। उन्होंने आगे कहा – जैसा विचार हम स्वयं के बारे में करते हैं, वैसा ही विचार हमें दूसरों के बारे में भी करना चाहिए।
यदि हम कुछ क्षणों के लिए अपने भीतर झाँकें, तो हमें यह अनुभव होगा कि हम भीतर से समृद्ध हो रहे हैं, हमारे माध्यम से कुछ अच्छा घटित हो रहा है, कुछ सकारात्मक रचनाएँ जन्म ले रही हैं। तो फिर हम अपना समय व्यर्थ की बातों में क्यों गवाएँ? जब आप स्वयं से या दूसरों से संवाद करें, तो वह संवाद ऐसा होना चाहिए जो स्वयं का और दूसरों का जीवन सँवारनेवाला हो।
मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार, जब हम किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई करते हैं या कटु शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो अनजाने में हम उस व्यक्ति को अपने मन, शरीर और आत्मा में स्थान दे देते हैं। उसके बारे में अच्छे-बुरे विचार हमारे भीतर जन्म लेने लगते हैं।
ऐसे विचारों के कारण हम उस व्यक्ति को अपने ऊपर हावी होने देते हैं। तो फिर जिस शरीर में हमारा आत्मा वास करता है, उसमें किसी और के विचारों को क्यों स्थान दें? इसका उपाय है – हमारे कानों को सजग बनाना। क्योंकि कान ही हमारे मन को तैयार करते हैं।
असल में मन की रचना के पीछे का रहस्य ही हमारे कान हैं। जिन बातों को हम बार-बार सुनते हैं, उन्हीं के आधार पर हम अपनी राय बनाते हैं। इसलिए हमारे कान कितने सजग और चयनशील होने चाहिए, यह तय करना हमारे ही हाथ में है।
यदि हमारे कानों में लगातार नकारात्मक बातें ही पड़ती रहीं, तो हमारा मन भी दूषित होता जाएगा। यदि हम किसी व्यक्ति के बारे में एक बार यह मान लें कि वह वैसा ही है, और उसके प्रति पूर्वग्रह का चश्मा पहन लें, तो हम उसे उसी दृष्टि से ही देखने लगते हैं।
ऐसे में हम उस व्यक्ति की अच्छाइयों को देख ही नहीं पाते, क्योंकि हमारे मन का चश्मा हमें उसके वास्तविक स्वरूप से मिलने ही नहीं देता। एक बार आँखों का चश्मा तो हटाया जा सकता है, लेकिन मन पर चढ़ा पूर्वग्रह का चश्मा हटाना कठिन होता है। इसलिए हमारी वाणी, भाषा, हमारे कान और मन को एक समृद्ध स्तर तक कैसे ले जाया जाए, यह हमारे ही हाथ में है।
