महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : बोध प्राप्त ज्ञान से निर्मित जीवन करुणामय होता है। उसी करुणा से धर्म का निर्माण होता है। करुणा ही दया है। दया ही प्रेम है और दया ही धर्म है। दया का अर्थ है जीवन को कल्याणकारी बनाने की कला। यह जीवन जीने की कला हमें प्राप्त हो, इसके लिए उसके पीछे का तत्त्व जानना और आत्मसात करना आवश्यक है। तभी हम जीने की कला में पारंगत हो पाएँगे, ऐसा प्रतिपादन प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि किसी बात को मानना या न मानना, वास्तविक जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं लाता। परंतु यदि उन बातों को स्वीकार कर उन्हें व्यवहार में उतारा जाए, तो उससे हमें ही जीवन में लाभ होता है।
उदाहरण के लिए, गुरुत्वाकर्षण या ध्वनि-इनका अस्तित्व स्वीकार कर यदि उनका उपयोग किया जाए, तो निश्चित ही उसका लाभ मिलता है। जिसने उनका महत्व समझा और सही ढंग से उनका उपयोग किया, वही उनसे लाभान्वित हुआ।
लेकिन जिसने उनका महत्व ही नहीं समझा, उसके लिए वे बातें हों या न हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए कोई भी क्रिया करते समय यह जानना आवश्यक है कि हम वह क्यों कर रहे हैं और उसके पीछे का महत्व क्या है।
जब कोई क्रिया समझ-बूझकर की जाती है, तभी उसका परिणाम सकारात्मक होता है। अतः किसी भी कार्य को करने से पहले उसे समझें और उसका बोध होने दें। प. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने कहा कि जीवन के सात तत्त्वों में संपूर्ण जीवन का सार निहित है।
जीवन-पथ पर ये सात बातें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि उनका अनुसरण किया जाए, तो जीवन की राह पर हम सही ढंग से आगे बढ़ पाएँगे, अन्यथा राह भटकने पर समस्याएँ ही उत्पन्न होंगी। जीवन में समस्याएँ सहनी हैं या समाधान पाना है, यह हमारे हाथ में है।
इसके लिए यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम जीवन की घटनाओं को किस प्रकार ग्रहण करते हैं। इसके लिए हमारी दृष्टि अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः हर कार्य को करते समय उसके परिणामों को ध्यान में रखकर, समझदारी से करना आवश्यक है।
