महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : हमारे भीतर जो शक्ति है, उसमें स्वयं कोई बुद्धि नहीं होती। उसे पंडित बनाना, यही हमारे जीवन का सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है, ऐसा प्रतिपादन पू. पू. प्रवीणऋषिजी म. सा. ने किया।
उन्होंने कहा कि हमारे भीतर शक्ति के दो प्रकार होते हैं। एक शक्ति सचेत रूप से कार्य करती है और दूसरी अचेत रूप से। आध्यात्मिक भाषा में इन्हें अभोग वीर्य और अनुभव वीर्य कहा जाता है। हमारे शरीर के भीतर जो भी कार्य होते हैं, वे इसी शक्ति से होते हैं। किंतु हमें उसकी जरा भी जानकारी नहीं होती। यह सब अचेतन स्तर पर चलता रहता है।
अक्सर हमारी भावनाएँ, हमारा चरित्र और हमारी तपस्या अनभोग वीर्य के अधीन चली जाती हैं। ऐसी स्थिति में जीवन में तूफ़ान भी आ सकता है या बड़ी उपलब्धि भी प्राप्त हो सकती है। जब हम कहते हैं कि परिस्थिति ‘नियंत्रण से बाहर हो गई’, तो वह वास्तव में किसके नियंत्रण में जाती है? हम कहते हैं कि यह ईश्वर की इच्छा है या नियति है, और उसी में सुधार का अवसर खो बैठते हैं।
‘नियंत्रण में नहीं’ यह शब्द जैन दर्शन में नहीं आता। कोई और हमारे ऊपर नियंत्रण स्थापित नहीं करता, बल्कि जब हम स्वयं उसे अनुमति देते हैं, तभी यह संभव होता है। इसलिए शक्ति को सही दिशा देना हमारा कर्तव्य है।
आचरण सही हो, मस्तिष्क का उचित उपयोग हो-इसके लिए हम प्रयास करते हैं। किंतु शक्ति विद्वान या पंडित बने, इसके लिए हम सचेत प्रयास नहीं करते। यह करना आवश्यक है।
हमारी शक्ति मूर्ख है, उसमें विवेक नहीं, इसलिए सारा भ्रम उत्पन्न होता है।
हम सब कुछ जानते हुए भी स्थितियाँ हाथ से निकल जाती हैं। इसका कारण बुद्धि नहीं, बल्कि वही शक्ति है, जिसे हमने पंडित नहीं बनाया। अतः हमारे भीतर कार्यरत शक्ति को पंडित बनाना अनिवार्य है।
जब तक यह नहीं होता, तब तक हमारा मस्तिष्क भटकता रहेगा, परिस्थितियाँ हाथ से निकलती रहेंगी और भावनाएँ नियंत्रण में नहीं रहेंगी। इसीलिए, अपनी शक्ति को पंडित बनाइए।

















