महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : मनुष्य का जीवन केवल अपने तक सीमित नहीं होता, बल्कि दूसरों से जुड़ने और बने रिश्तों के कारण ही वह समृद्ध होता है। मानव स्वभाव से ही सामाजिक प्राणी है। अकेले जीवन जीना उसे पसंद नहीं होता। जीवन की यात्रा में उसे साथी की आवश्यकता होती है। सुखद और सुरक्षित जीवन उसे इन्हीं साथियों के माध्यम से प्राप्त होता है। इसी से रिश्तों का जन्म होता है। वास्तव में हमें रिश्तों का वरदान मिला है। रिश्तों के बिना जीवन जीना कठिन है।
लेकिन इन रिश्तों का निर्माण हमारे हाथ में नहीं होता, न ही हम इसके सूत्रधार होते हैं। वे तो संयोगवश हमसे जुड़ जाते हैं। फिर भी, मिले हुए इन रिश्तों को हम कैसे संभालते हैं, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हमारा जीवन कभी भी पूर्ण नहीं होता। प्रत्येक कदम पर हमें सहायता की आवश्यकता पड़ती है। कभी हमें किसी की मदद चाहिए होती है तो कभी दूसरों को हमारी। रिश्ता चाहे कितना भी निकट का क्यों न हो, मदद करते समय सामने वाले की अनुमति लेना आवश्यक है।
क्योंकि कभी-कभी यह मदद सामने वाले को मदद से ज्यादा उपकार का बोझ लग सकती है। मदद करते समय या अन्य किसी कार्य में अनुमति लेते समय हमारी भाषा विनम्र और मधुर होनी चाहिए। हमारी अधिकारपूर्ण भाषा से कहीं सामने वाले का व्यक्तित्व या स्वतंत्रता दब न जाए, इसका ध्यान रखना चाहिए।
एक-दूसरे के आचरण और विचारों में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन यदि हम किसी को उसके गुण-दोष सहित स्वीकार करें तो रिश्तों की जड़ें और भी मजबूत हो जाती हैं। इन जड़ों को और गहरा करने के लिए हमारी मदद और वह भावना निःस्वार्थ होनी चाहिए। रिश्तों में उपकार की भावना रखने के बजाय परोपकार की भावना रखेंगे तो उनमें प्रेम और अपनत्व और भी अधिक बढ़ेगा।
