महाराष्ट्र जैन वार्ता
पुणे : बदला लेने का संकल्प नर्क की ओर जाने जैसा है, जबकि स्वयं को बदलने का संकल्प सिद्धि की ओर ले जाता है। किसी व्यक्ति के प्रभाव में आकर किया गया संकल्प उस व्यक्ति के प्रभाव के साथ ही कमजोर पड़ जाता है। परंतु जो संकल्प मन से, दृढ निश्चय से किए जाते हैं वे महत्वपूर्ण होते हैं। जब हम स्वयं किसी वचन से बँधते हैं तो उसकी जिम्मेदारी अलग होती है – दूसरा कोई तोड़ दे, यह अलग बात है, लेकिन हम स्वयं भी वह वचन नहीं तोड़ पाते। परिस्थितियों के अनुसार किए गए संकल्प परिस्थितियाँ बदलते ही समाप्त हो जाते हैं; परन्तु जो संकल्प आन्तरिक भावना से जन्म लेते हैं वे दीर्घकाल टिकते हैं और तोड़ना कठिन होता है।
हमारे सामने कोई शत्रु नहीं है। बदला लेने की प्रवृत्ति हमारी प्रकृति नहीं बननी चाहिए; यह हमारा स्वभाव नहीं बनना चाहिए – इसके प्रति जागरूक रहना आवश्यक है। बदला लेने का स्वभाव एक बार बन गया तो उसी का शिकार वे लोग होते हैं जो हमसे प्रेम करते हैं। रिश्ते प्रेम से शत्रुता में बदल जाते हैं – यह हम अचूक समझें।
भारत-पाकिस्तान, रूस-यूक्रेन, हिंदू-मुस्लिम-इन सबमें बदले की भावना दिखती है और इसके परिणाम पूरे विश्व को झेलने पड़ रहे हैं। यही बदले की भावना रिश्तों में भी दिखाई देती है – सास-बहू, पति-पत्नी के बीच भी यह मिलती है।
किसी को दुख पहुँचा कर गौरव की अनुभूति पाना बदले की भावना है। अगर किसी के दुख से आपको प्रसन्नता मिलती है तो समझें कि आप इंसानियत से दूर हैं। इसलिए मन में एक बार ठान लीजिए – भयकारी बनकर जीना है या शुभंकर बनकर। बदले के भाव के परिणाम घातक होते हैं।
मैं प्रतिशोध की भावना में नहीं जाऊँगा – ऐसा अपने मन से ठहराइए। क्रोध आना सामान्य है, परन्तु प्रतिशोध के मार्ग पर उतर जाना खतरनाक है। इसलिए समय रहते स्वयं को संयमित करें। यदि आप प्रेम के संबंधों को शत्रुता में बदलना नहीं चाहते, तो बदले और प्रतिशोध की भावना से दूर रहें।
किसी के दुःख को देखकर आनंद न मानें; किसी के दुःख में व्यथा महसूस करना ही मानवता की निशानी है।
